मुझे आज लगता है, श्याममोहन की अकाल मृत्यु के लिए कहीं-न-कहीं ऐसे दफ़्तरी राक्षसों का नपा-तुला योगदान ज़रूर है। अफ़सरों की ऐसी ही कुंठाएँ मुझे लेखकीय स्तर पर हमेशा प्रेरित करतीं।
वह उम्र ही ऐसी थी कि जो भी दोस्त प्यार में मुब्तिला होता, सबसे पहले अपने दोस्तों से कट जाता।
आदमी को समय पर घूस का महात्म्य समझ में आ जाए तो पथ निष्कंटक हो जाता है, उस पर फूल बिखर जाते हैं। देखा गया है, जो लोग सही वक्त पर इस पाठ में निरक्षर रह जाते हैं, वह फिर अविवाहित लोगों की तरह सनकी हो जाते हैं...
उन दिनों यह 'धर्मयुग' का दस्तूर था कि जिस पर भारती जी की कृपा दृष्टि रहती थी, सब सहकर्मी उससे सट कर चलते थे, जिससे भारती जी ख़फ़ा, उससे पूरा स्टाफ भयभीत।
दफ़्तर में डॉ. धर्मवीर भारती एक कुशल प्रशासक की तरह 'डिवाइड ऐंड रूल' में विश्वास रखते थे। उपसम्पादकों को एक साथ कहीं देख लेते तो उनकी भृकुटी तन जाती। बहुत जल्दी इसके परिणाम दिखायी देने लगते। किसी को अचानक डबल इन्क्रीमेंट मिल जाता। किसी एक से सपारिश्रमिक अधिक लिखवाने लगते। किसी एक का वजन अचानक बढ़ने लगता। कोई एक अचानक देवदास की तरह उदास दिखने लगता। चुगली से बाज़ रहने वाला आदमी अचानक चुगली में गहरी दिलचस्पी लेने लगता। सम्पादक के कृपापात्र को सब संशय से देखने लगते। वह भरे दफ़्तर में अकेला हो जाता।
मैंने बहुत पहले फैज़ की राय गाँठ बाँध ली थी और अपने को खुश्क पत्तों की तरह हवाओं के हवाले कर दिया था।
इलाहाबाद आने से पूर्व मैं दिल्ली और मुम्बई में भी वर्षों रहा, मगर जो अनुभव और झटके इलाहाबाद ने दिये वह इलाहाबाद ही दे सकता था। असहमति, विरोध, अस्वीकार और आक्रामकता इलाहाबाद का मूल तेवर है। इलाहाबाद की पीटने में ज्यादा रूचि रहती है।... नेहरु ख़ानदान का भी काले झंडों से जितना स्वागत इलाहाबाद में हुआ होगा, वह अन्यत्र सम्भव नहीं।
सब मित्रों से घर बैठे-बैठे मुलाक़ात हो जाती थी, मुलाक़ात ही नहीं, कभी-कभी मुक्कालात भी।
समय का पहिया दाम्पत्य को रौंदता हुआ बहुत दूर निकल चुका था, इतना दूर कि उसके पास मुड़कर देखने का भी विकल्प न बचा था।
वह शाम शायद इसलिए भी याद रह गयी कि लक्ष्मीधर ने उस शाम की अनेक छवियाँ कैमरे में क़ैद की थीं और ढेरों चित्र भिजवाये थे। आज भी वे चित्र हाथ लग जाते हैं तो शाम बोल-बोल उठती है।
इस नश्वर संसार में हर चीज टूटने के लिए ही बनती है।
पिता जीवन भर डीएवी शिक्षण संस्थाओं से जुड़े रहे। जब तक उनका बस चला, उन्होंने घर में शुद्धतावादी आर्यसमाजी अनुशासन कायम रखने की भरपूर कोशिश की, मगर मुझे उस माहौल में वैसी ही घुटन महसूस होती जो हवन की गीली लकड़ी के ठीक से आग न पकड़ने पर उसके धुएँ से होती है। इस उलझन से बचने के लिए मैं बहुत कम पिता के सामने पड़ता था। वह नीचे आते तो मैं ऊपर चला जाता, वह ऊपर बैठते तो मैं नीचे। सिगरेट की लत ने भी मुझे परिवार से दूर कर दिया था।
मेरा ईमान क्या पूछती हो मुन्नी
शिया के साथ शिया सुन्नी के साथ सुन्नी
...शुभा [मुदगल] के पिता स्कन्दगुप्त फैज़ के ज़बरदस्त फैन थे… उन्होंने फैज़ के कार्यक्रमों पर मूवी कैमरे से फिल्म बनाई थी।... वह भारत के मान्यता प्राप्त क्रिकेट कमेंटेटर भी थे।
वह चाय सुड़कते हुए मुझे गालियाँ देने लगा। पंजाब में गालियों से ही आत्मीयता प्रदर्शित की जाती है।
प्रयाग का यह फक्कड़ अंदाज़ आज भी रचनाकारों को आकर्षित करता है। मुफ़लिसी यहाँ अभिशाप नहीं, सहज स्वीकार्य है। सुविधाओं, पुरस्कारों और सम्मानों की अन्धी दौड़ यहाँ के माहौल से एकदम नदारद है।
उसके पास जितना पैसा आता उसी अनुपात में वह कर्मकांडी होता जाता।
मैं भीड़ से हटकर एक चबूतरे पर बैठकर पिता का अन्तिम संस्कार देखता रहा। मुझे लग रहा था, जैसे पिता की चिता के साथ-साथ मेरा बचपन, मेरी स्मृतियाँ, मेरा समूचा अतीत आज जलकर राख हो जाएगा।
एक दिन में पूरे घर का नक्शा बदल गया था। पूरा घर अजनबी और वीरान हो उठा था, जैसे रात भर में सबकुछ उजड़ गया हो। घर का फर्नीचर तक उदास था, दीवारें सूनी थीं, पंखे जैसे सूली पर लटक रहे थे। भाँय-भाँय कर रहा था पूरा माहौल।
“पापा को आज ही जाना था, आज हमारी शादी की सालगिरह थी।” भैया ने बताया कि बॉडी मार्च्युरी में रखवा दी है। उनकी आवाज़ से लग रहा था, वह मुझसे बेहतर स्थिति में नहीं हैं। मुझे अचानक नशे में भी लगा जैसे ‘कफ़न’ के घीसू और माधो आपस में बातचीत कर रहे हों। हम दोनों की ज़ुबान लटपटा रही थी। घीसू ने फ़ोन रख दिया और माधो ने रजाई ओढ़ ली।
[page 74]
वह उम्र ही ऐसी थी कि जो भी दोस्त प्यार में मुब्तिला होता, सबसे पहले अपने दोस्तों से कट जाता।
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आदमी को समय पर घूस का महात्म्य समझ में आ जाए तो पथ निष्कंटक हो जाता है, उस पर फूल बिखर जाते हैं। देखा गया है, जो लोग सही वक्त पर इस पाठ में निरक्षर रह जाते हैं, वह फिर अविवाहित लोगों की तरह सनकी हो जाते हैं...
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उन दिनों यह 'धर्मयुग' का दस्तूर था कि जिस पर भारती जी की कृपा दृष्टि रहती थी, सब सहकर्मी उससे सट कर चलते थे, जिससे भारती जी ख़फ़ा, उससे पूरा स्टाफ भयभीत।
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दफ़्तर में डॉ. धर्मवीर भारती एक कुशल प्रशासक की तरह 'डिवाइड ऐंड रूल' में विश्वास रखते थे। उपसम्पादकों को एक साथ कहीं देख लेते तो उनकी भृकुटी तन जाती। बहुत जल्दी इसके परिणाम दिखायी देने लगते। किसी को अचानक डबल इन्क्रीमेंट मिल जाता। किसी एक से सपारिश्रमिक अधिक लिखवाने लगते। किसी एक का वजन अचानक बढ़ने लगता। कोई एक अचानक देवदास की तरह उदास दिखने लगता। चुगली से बाज़ रहने वाला आदमी अचानक चुगली में गहरी दिलचस्पी लेने लगता। सम्पादक के कृपापात्र को सब संशय से देखने लगते। वह भरे दफ़्तर में अकेला हो जाता।
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मैंने बहुत पहले फैज़ की राय गाँठ बाँध ली थी और अपने को खुश्क पत्तों की तरह हवाओं के हवाले कर दिया था।
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इलाहाबाद आने से पूर्व मैं दिल्ली और मुम्बई में भी वर्षों रहा, मगर जो अनुभव और झटके इलाहाबाद ने दिये वह इलाहाबाद ही दे सकता था। असहमति, विरोध, अस्वीकार और आक्रामकता इलाहाबाद का मूल तेवर है। इलाहाबाद की पीटने में ज्यादा रूचि रहती है।... नेहरु ख़ानदान का भी काले झंडों से जितना स्वागत इलाहाबाद में हुआ होगा, वह अन्यत्र सम्भव नहीं।
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सब मित्रों से घर बैठे-बैठे मुलाक़ात हो जाती थी, मुलाक़ात ही नहीं, कभी-कभी मुक्कालात भी।
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समय का पहिया दाम्पत्य को रौंदता हुआ बहुत दूर निकल चुका था, इतना दूर कि उसके पास मुड़कर देखने का भी विकल्प न बचा था।
[page 178]
वह शाम शायद इसलिए भी याद रह गयी कि लक्ष्मीधर ने उस शाम की अनेक छवियाँ कैमरे में क़ैद की थीं और ढेरों चित्र भिजवाये थे। आज भी वे चित्र हाथ लग जाते हैं तो शाम बोल-बोल उठती है।
[page 178]
इस नश्वर संसार में हर चीज टूटने के लिए ही बनती है।
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पिता जीवन भर डीएवी शिक्षण संस्थाओं से जुड़े रहे। जब तक उनका बस चला, उन्होंने घर में शुद्धतावादी आर्यसमाजी अनुशासन कायम रखने की भरपूर कोशिश की, मगर मुझे उस माहौल में वैसी ही घुटन महसूस होती जो हवन की गीली लकड़ी के ठीक से आग न पकड़ने पर उसके धुएँ से होती है। इस उलझन से बचने के लिए मैं बहुत कम पिता के सामने पड़ता था। वह नीचे आते तो मैं ऊपर चला जाता, वह ऊपर बैठते तो मैं नीचे। सिगरेट की लत ने भी मुझे परिवार से दूर कर दिया था।
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मेरा ईमान क्या पूछती हो मुन्नी
शिया के साथ शिया सुन्नी के साथ सुन्नी
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...शुभा [मुदगल] के पिता स्कन्दगुप्त फैज़ के ज़बरदस्त फैन थे… उन्होंने फैज़ के कार्यक्रमों पर मूवी कैमरे से फिल्म बनाई थी।... वह भारत के मान्यता प्राप्त क्रिकेट कमेंटेटर भी थे।
[page 198]
वह चाय सुड़कते हुए मुझे गालियाँ देने लगा। पंजाब में गालियों से ही आत्मीयता प्रदर्शित की जाती है।
[page 207]
प्रयाग का यह फक्कड़ अंदाज़ आज भी रचनाकारों को आकर्षित करता है। मुफ़लिसी यहाँ अभिशाप नहीं, सहज स्वीकार्य है। सुविधाओं, पुरस्कारों और सम्मानों की अन्धी दौड़ यहाँ के माहौल से एकदम नदारद है।
[page 211]
उसके पास जितना पैसा आता उसी अनुपात में वह कर्मकांडी होता जाता।
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मैं भीड़ से हटकर एक चबूतरे पर बैठकर पिता का अन्तिम संस्कार देखता रहा। मुझे लग रहा था, जैसे पिता की चिता के साथ-साथ मेरा बचपन, मेरी स्मृतियाँ, मेरा समूचा अतीत आज जलकर राख हो जाएगा।
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एक दिन में पूरे घर का नक्शा बदल गया था। पूरा घर अजनबी और वीरान हो उठा था, जैसे रात भर में सबकुछ उजड़ गया हो। घर का फर्नीचर तक उदास था, दीवारें सूनी थीं, पंखे जैसे सूली पर लटक रहे थे। भाँय-भाँय कर रहा था पूरा माहौल।
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“पापा को आज ही जाना था, आज हमारी शादी की सालगिरह थी।” भैया ने बताया कि बॉडी मार्च्युरी में रखवा दी है। उनकी आवाज़ से लग रहा था, वह मुझसे बेहतर स्थिति में नहीं हैं। मुझे अचानक नशे में भी लगा जैसे ‘कफ़न’ के घीसू और माधो आपस में बातचीत कर रहे हों। हम दोनों की ज़ुबान लटपटा रही थी। घीसू ने फ़ोन रख दिया और माधो ने रजाई ओढ़ ली।
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