Wednesday, February 25, 2015

उदास चांदनी (मंजूर एहतेशाम)

जवानी भी क्या नशा होती है, खून में यूं जज्ब कि जब तक बिलकुल टूटे ना, अंदाजा ही नहीं हो पाता.

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क्या चीज है साहब शराब भी!  दो घूंट हलक से उतरे नहीं कि... कुछ देर और थोड़ी अटपटाहट महसूस होगी, उसके बाद मुझमें फिर से गलतियां करने की क्षमता पैदा हो जायेगी...

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इतना बड़ा सच न कहें कि उसके बोझ में बहुत सारे छोटे-छोटे नर्मो-नाजुक, आपस में गुत्थम-गुत्था सच दब कर हलाक हो जायें. कोई सच, अपने-आप में पूरा नहीं होता, नहीं हो सकता. किसी इनसान को उसकी व्यक्तिगत सच्चाइयों से कैसे अलग किया जा सकता है? इस तरह की सच्चाई क्या झूठ गिनी जाएगी? एक भारी-भरकम शब्द को जन्म देने में, मालूम है आपको, कितने नर्म स्वर अपना अस्तित्व खो देते हैं?... मुझे आपकी ईमानदारी में कोई संदेह नहीं, लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि आपकी ईमानदारी कोई पूर्ण सत्य है. ऐसे किसी सत्य की मुझे तलाश भी नहीं. दुनिया के अपने अंदाज हैं, मेरा अपना यह है.

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कभी-कभी जिंदगी का पूरा स्वरुप बदल डालनेवाली घटनाएं इतनी ही सादगी और मामूलीपन से हो जाती हैं...

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बहुत जल्दी मैंने अपनी साधारणता को पहचान लिया. यह दूसरी बात है कि इस सत्य को पूरी तरह स्वीकार आज तक नहीं कर पाया! और क्या ऐसा कर पानाअपने-आप में कोई आसान चीज हो सकती है! कैसे कोई मान ले कि गल्ले की एक भेड़ से अधिक उसका महत्व नहीं. मैं वास्तव में उन लोगों के दुख की बात कर रहा हूं जो जीवन जीते यह स्वीकार करने पर तो विवश हैं कि वे साधारण और मामूली हैं, लेकिन मन में जिनके यह आशा हमेशा बनी रहती है कि जीवन का कोई अनुभव, कोई मोड़, कोई क्षण इस साधारणता के रेवड़ से अलग कर जायेगा. लेकिन समय का हर बीतता पल उनके पहले विश्वाश - खुद के अदना और मामूली होने - को ही पुख्ता करता जाता है.

[साधारण से कुछ भिन्न, कुछ असाधारण होने या बनने, और स्वीकृत किए जाने की आकांक्षा शायद इंसान का मौलिक स्वाभाव है, जो बचपन से ही दिखाई पड़ने लगता है. क्या कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनमें यह आकांक्षा नहीं होती? क्या कुछ लोग साधारणता से जुड़े सकून को ज्यादा महत्व देते हैं?  - RKP]

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जिंदा रहने की अपनी विचित्र मांगें होती हैं, जहां सौ अच्छाइयों के बदले आप कुछ आकर्षण मोल लेना ज्यादा उचित सौदा समझते हैं. जीवन बिलकुल सही अनुपात में दोनों ही तलब करता है - सच भी, और झूठ भी. ऐसे झूठे और नकली की भी आवश्यकता और महत्व से कोई इनकार नहीं... और इसके नतीजे हाथ लगनेवाले पछतावे से भी! यह पछतावा हमारे संतोष की बुनावट का महत्वपूर्ण तार है. नेकी, सच्चाई, उदारता, बलिदान! कब तक? आखिरकब तक? अपने-आप में ये विशेषताएं निहायत थकाऊ, बेहद उबाऊ होने के सिवा कुछ नहीं, जिनकी तमन्ना बुनियादी महत्व रखते हुए भी, कभी अपने में सब कुछ नहीं हो सकती. कम-से-कम मेरे लिए सिर्फ इन सच्चाइयों को जीवन का आधार बनाना न कभी संभव हुआ और न ही शायद हो पाये.

मंजूर एहतेशाम की कहानी 'उदास चांदनी' से (धर्मयुग, 22 फरवरी  1987)

एक कहानी में इतनी सारी insightful बातें  - वाह !