Monday, December 26, 2011

खिलवाड़ (अमरीक सिंह दीप)

सुवर्णा के दफ्तर के एकाउंट विभाग में यू.डी.सी थी सुधा साहनी. पूरा दिन उसका आँकड़े दुरूस्त करने में गुजरता था. समझ नहीं आता था फिर क्यों उसने अपनी जिंदगी के आँकड़े इतने उलझा रखे थे. यूँ आँकड़ों पर अपनी पकड़ मजबूत रखने वाले लोग बड़े व्यावहारिक होते हैं. अपना हर काम नफ़ा-नुकसान देख कर करते हैं.

- अमरीक सिंह दीप की कहानी 'खिलवाड़' से


Profession's impact on one's personality

Sunday, October 16, 2011

बारिश, ईश्वर और मृत्यु (जयशंकर)

एक नीरस कविता

यह और यही तो सबके साथ होता है। एक वक़्त आता है जब अचानक एक दिन आप पाते हैं कि आपका जमाना बीत गया है। आप एक कोने में पड़े हुए अपने आसपास को देखते रहते हैं और आपका आसपास बिना आपकी भागेदारी के चलता रहता है, बढ़ता रहता है।


इन सब अहसासों और अनुभवों के बीच वे ऐसा भी सोचते रहते हैं, कि बुढ़ापे में यह सिर्फ उनके साथ ही नहीं हो रहा है। पहली बार नहीं हो रहा है. सदियों से इस संसार में बुढ़ापा विवश, विकराल और विषादमय ही रहता आया है। यह सब बड़ी हुई उमर का तकाजा है। थकी हुई देह कि नैसर्गिक नियति।



उत्खनन
वक़्त कितनी बेरहमी के साथ बीत जाता है।

अपने ऐसे दिनों को कौन नहीं याद रखता...बाद में तो जीने की हड़बड़ी और घबराहटों से ही फुरसत नहीं मिलती है।



व्यथा

अब महसूस होता है कि उन दिनों मेरे जीवन में कितना कुछ आत्मीय घटता था। जिसे हम सुख कह कर बुला सकते हैं, वह कितनी सरलता और चंचलता के साथ गायब हो जाता है।


सोफिया

उम्र के साथ-साथ आदमी कितनी चीजों को छोड़ता चला जाता है. उससे कितने लोग छूटते हैं, कितनी जगहें, कितने सपने और कितनी आकांक्षाएँ। फिर एक दिन आता है जब आदमी खुद को ही छोड़ देता है।

आहिस्ता-आहिस्ता सब बदलता जाता है। हर आदमी धीरे-धीरे मरता रहता है।


शाम

मैं भ्रमों, भटकावों और भूलों के बीच नहीं भटकूँगा।

(comment: कहानी में अनुप्रास अलंकार का भरपूर प्रयोग है।)

सर्दियों की इस शाम में, मैं इस भय और आशंका से भी ठिठुर रहा हूँ कि कहीं उसकी मुझमें दिलचस्पी तो  बुझने नहीं लगी है।


रात

हमारी छोटी-सी जिंदगी में कितने लोग आते हैं। कैसे-कैसे लोग आते हैं। हमारा अपना जीवन जैसे किसी सराय की तरह होता है। जिसमें लोग कुछ दिनों तक ठहरते हैं और चले जाते हैं।


जिहाद

बहुत पहले दीदी ने कहा था - 'मै अकेलापन महसूस करती रही हूँ लेकिन बोरियत मुझे बहुत कम ही सताती है।'

Saturday, September 17, 2011

एक प्याली काँफी (इंदिरा दांगी)

सहसा नम खुशबू के एक ताजा झोंके ने ड्यूटी रूम में प्रवेश किया.


वह जहाँ होती है, वह जगह सज जाती है.
- इंदिरा दांगी की कहानी 'एक प्याली काँफी' से (आउटलुक, जून 2011)

Sunday, August 21, 2011

राजनीति का खेल

राजनीति के खेल में अन्दर का शैतान निकलता है।
- प्रकाश झा की फिल्म 'राजनीति' से



That's the thing about politics - once you get involved in it, it pushes everything else out of your life.
- From Amitav Ghosh's novel 'The Glass Palace'