Wednesday, March 7, 2012

बोधिवृक्ष (प्रियंवद)

... गली के ऊपर फड़फड़ाती चाँदनी... किसी पेड़ पर टंगा वसंत... नालियों में जमा पतझड़.

(Gulzar-esque writing)

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नैतिकता का... पुण्य का... संस्कारों का चाबुक...

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न वो लोग रहे, न वे बातें.

(a classic nostalgic statement)

 - प्रियंवद की कहानी 'बोधिवृक्ष' से

Monday, March 5, 2012

...और अंत में प्रार्थना (उदय प्रकाश)

लेकिन ईश्वर को डॉक्टर वाकणकर मानते हैं. वे कहते हैं कि ऐसे किसी अस्तित्व या मिथक का बने रहना जरुरी है. उनके अनुसार ईश्वर अशक्त मनुष्यों की असहायता और विकलता का आर्तनाद है. ईश्वर अफीम या मारफीन तो है, लेकिन इस अर्थ में कि वह मारे जानेवाले मनुष्य के दर्द और यंत्रणा को कम कष्टप्रद बनाता है. ईश्वर एस्पिरीन, एनेस्थेशिया या ट्रेंक्वेलाइजर की तरह है. एक भला और दयालु डॉक्टर भी अंत में किसी असाध्य रोग से मरते हुए मरीज को ईश्वर ही प्रदान करता है... ईश्वर मरीज की पीड़ा, यंत्रणा, चीख और मृत्यु को पारलौकिक परिभाषा देकर उसकी सहिष्णुता को बढ़ाता है.
(p.104)
("The fact that a believer is happier than a skeptic is no more to the point than the fact that a drunken man is happier than a sober one" – George Bernard Shaw)

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मैंने उसके [प्रधानमंत्री] चेहरे पर मृत्यु की परछाईं का हल्का धुंधलका देखा. मुझे यकीन है कि वह इसे जानता है... भविष्य में जीनेवालों के प्रति वह पूरी तरह से अनुत्तरदायी है.
(p.160)
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...शहर में बेरोजगारों की अच्छी-खासी तादाद थी... उनके चेहरे एक जैसे उदास, सख्त और अपरिचित थे. तिरस्कार, निर्वाचन और सामाजिक अनुपयोगिता ने उन्हें एक हिंसक अहंकार से भर दिया था. बहुत मामूली-सी बात पर वे मारपीट कर सकते थे, हत्या कर सकते थे और ऐसा करते हुए उन्हें यह संतोष हो सकता था कि उनका अस्तित्व अभी भी संसार में है और वे कुछ कर सकते हैं. हिंसा, फसाद, झगड़ा और बलात्कार उनके लिए अपने सामाजिक विस्थापन और मानसिक लाचारी से किसी तरह मुक्त होने का एक छटपटाता हुआ प्रतिरोध था, जिसे समाज अपराध मानता था.
(p.163)

- उदय प्रकाश क़ी कहानी '...और अंत में प्रार्थना' से
Lots of sociological insights. Psychological function of religion. Marginalization leads to Radicalization.