Monday, June 29, 2015

अमृता प्रीतम की कहानी 'शाह की कंजरी'

अमृता प्रीतम की बेहतरीन कहानी। It's so well crafted. एक-एक शब्द सहज और सटीक। कहानी पढ़ते हुए सबकुछ सच और विश्वसनीय लगता है। लेखिका ने एक स्त्री के उसके पति की रखैल के प्रति मनोभावों का सजीव चित्रण किया है। एक अच्छी कहानी कितनी मनोरंजक और रसीली हो सकती है, यह इसका बेहतरीन उदाहरण है।

कहानी पढ़ने के बाद इंटरनेट पर कहानी के बारे में अमृता प्रीतम की यह टिप्पणी मिली:
१९८७ में जब मेरी कहानी "शाह की कंजरी" टेलिविज़न पर "कश़मकश" सीरिज़ में टेलिकास्ट हुई, तो यह कहानी बहुत चर्चित हुई थी। कहानी के तीनों किरदार बहुत अच्छे पेश हो पाये थे।  लेकिन देखा उसकी जो चर्चा हो रही थी वह कहानी की गहरायी तक नहीं उतर पा रही थी।
वो कहानी मैंने अपनी आंखों के सामने घटित होते देखी थी, सन १९४५ में जब लाहौर में एक शादी वाले घर से निमंत्रण आया था, और मैं उस दिन वहां शामिल थी, जब घर में शादी ब्याह के गीतों वाला दिन बैठाया जाता है। उस दिन घर की मालकिन भी उस समागम में थी, और लाहौर की वो मशहूर नाजनीना भी, जिसे मल्लिकाये तरन्नुम कहा जाता था। और सब जानते थे कि वह घर के मालिक की रखैल थी।
उस नाज़नीना के पास सब कुछ था, हुस्न भी, नाज़ नखरा भी, बेहद खूबसूरत आवाज भी, लेकिन समाज का दिया हुआ वह आदरणीय स्थान नहीं था, जो एक पत्नी के पास होता है। और जो पत्नी थी उसके पास ना जवानी थी, न कोई हुनर, लेकिन उसके पास पत्नी होने का आदरणीय स्थान था। पत्नी होने का भी और मां होने का भी।
दोनों औरतों के पास अपनी अपनी जगह थी, और अपना अपना दर्द। लेकिन एक का दर्द दूसरी के दर्द से टूटा हुआ था। दर्द का एक टुकड़ा दर्द के दूसरे टुकड़े को समझने में असमर्थ था।
दोनों के पास अपना अपना बल था, पर अपनी अपनी अपाहिज अवस्था का।
दोनों के पास एक एक सहारा था, जो कभी उनकी नजर में बेहद कीमती हो जाता था, और कभी बिल्कुल नाचीज़ सा।
हार का एहसास दोनों को था। लेकिन कभी एक का सहारा उसे जीत की गलतफहमी सी दे जाता और कभी दूसरी का सहारा उसे जीत की खुशफहमी में डाल देता।
यह एक भयानक टाकराव था - अपनी अपनी हार का, जो अपने अपने दर्द का इज़हार चाहता था। लेकिन समाज से नहीं, सिर्फ किसी उससे, जो दोनों के दर्द को अपने गले से लगा सके।
और यह हकीकत है कि पूरे पच्चीस साल दोनों क दर्द, मेरे दिल के एक कोने में बैठा रहा। और पच्चीस साल बाद १९७० में मैं यह कहानी लिख पायी थी - शाह की कंजरी।

Saturday, June 20, 2015

Death of a Clerk (Chekhov)

Read Russian writer Anton Chekhov's well-known story 'Death of a Clerk'. It's about the human tendency for sycophancy in hierarchical relationships. Quite exaggerated. To drive his point home, Chekhov has used the literary tool of exaggeration.

There's no doubt about one thing: it's not just nature that kills people, culture also kills them.

Friday, June 19, 2015

पीकू

उम्र के ऐसे मुक़ाम पर जहाँ चारों ओर अँधेरा नज़र आता हो, साथ के लोग एक-एक करके दूसरी दुनिया में जाते नज़र आते हों, जो भी मिले, वह आपके भी जाने की बात करे, ऐसे में ख़ुद को ज़िन्दा रख पाना कितना मुश्किल होता होगा. व्याधियों से भरा अक्षम शरीर और निरंतर दुनिया से कटते चले जाने की पीड़ा. जहाँ किसी के पास आपके लिए वक़्त नहीं, वहाँ पल-पल अपने वजूद को खुद ही साबित करना कितना शर्मनाक लगता होगा. दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करने की हास्यास्पद चेष्टाओं के बीच बूढ़े कब बच्चे बन जाते हैं, बूढ़े पिता का चरित्र इसका बेहतरीन उदाहरण है.
किसी बुज़ुर्ग का अति सतर्क होकर घर की चीज़ों का ख़याल रखना हो या फिर हर व्यक्ति, वस्तु और विचार को शक की निगाह से देखना हो, सबकुछ आस-पास की कहानियों-सा या कहूँ कि सच-सा ही है.
- फिल्म 'पीकू ' की नेट पर एक  समीक्षा से  

रवीन्द्रनाथ ठाकुर की लोकप्रिय कहानियां

रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानियों का धन्यकुमार जैन द्वारा किया हुआ अनुवाद (हिन्द पॉकेट बुक्स से प्रकाशित) इतना घटिया है कि कहानियाँ अपठनीय सी हो गई हैं।  

Saturday, June 6, 2015

Underlying Reasons of Conflicts

It's very difficult to disaggregate our political problems from our climatic impacts. To what degree are the insurgencies of central India due to changes in rainfall patterns? ...look at Syria, the whole Syrian crisis began with a drought, and that drought has been steadily worsening.
- Amitav Ghosh, writer, in an interview (TOI, 7 June 2015)