उम्र के ऐसे मुक़ाम पर जहाँ चारों ओर अँधेरा नज़र आता हो, साथ के लोग एक-एक करके दूसरी दुनिया में जाते नज़र आते हों, जो भी मिले, वह आपके भी जाने की बात करे, ऐसे में ख़ुद को ज़िन्दा रख पाना कितना मुश्किल होता होगा. व्याधियों से भरा अक्षम शरीर और निरंतर दुनिया से कटते चले जाने की पीड़ा. जहाँ किसी के पास आपके लिए वक़्त नहीं, वहाँ पल-पल अपने वजूद को खुद ही साबित करना कितना शर्मनाक लगता होगा. दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करने की हास्यास्पद चेष्टाओं के बीच बूढ़े कब बच्चे बन जाते हैं, बूढ़े पिता का चरित्र इसका बेहतरीन उदाहरण है.
किसी बुज़ुर्ग का अति सतर्क होकर घर की चीज़ों का ख़याल रखना हो या फिर हर व्यक्ति, वस्तु और विचार को शक की निगाह से देखना हो, सबकुछ आस-पास की कहानियों-सा या कहूँ कि सच-सा ही है.
- फिल्म 'पीकू ' की नेट पर एक समीक्षा से

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