Tuesday, December 13, 2016

बदलाव की हवाओं को नोबेल! (प्रियदर्शन)

...इस बहुमाध्यमी (मल्टीमीडिया) दौर में संस्कृति के शास्त्रीय रूपों का वर्चस्व टूटा है और जनप्रियता का दबाव बढ़ा है। लगभग हर तरफ लोकप्रिय माध्यमों से आने वाला सम्प्रेषण शास्त्रीयता को अपदस्थ कर रहा है। भारतीय सन्दर्भों में देखें तो हमारे यहाँ होने वाले साहित्य उत्सवों में सिनेमा या टीवी से जुड़ी शख्सियतें हावी रहती हैं। गुलजार, जावेद अख्तर, प्रसून जोशी और इरफान से लेकर बरखा दत्त और राजदीप सरदेसाई तक ऐसे समारोहों की शोभा बढ़ाते देखे जाते हैं।...

बेशक, इन सबको देखकर यह हताशा भरा एहसास होता है कि समाज में औसतपन की कद्र बहुत तेजी से बढ़ी है और गम्भीर कला, विचार और साहित्य पीछे छूटे हैं।...

...यह एक बेसब्र, मनोरंजन से लेकर मुक्ति तक के तात्कालिक नुस्खे तलाशने वाली दुनिया है...

- प्रियदर्शन ('नया ज्ञानोदय', नवम्बर 2016)



अब्दुल मजीद की मिट्टी (मनीष वैद्य)

कभी नहीं लगता था कि ऐसा दौर भी आएगा, लेकिन आया और इतनी बेरहमी से आया कि उन्हें और उनके हुनर को कुचलते हुए नेस्तनाबूद कर गया।

- मनीष वैद्य की कहानी 'अब्दुल मजीद की मिट्टी' से ('पाखी', नवंबर-दिसंबर 2016) 

Monday, November 21, 2016

लालसा (जयशंकर)

यह क्या हो जाता है कि अपना खुद का परिवार बस जाने के बाद, हम उस परिवार को, उस परिवार के लिए अपनी जिम्मेवारियों को भूलने लगते हैं, जहाँ से हम आए थे, जिसके सहारे हम बड़े हुए थे, जिनके बिना हम वहाँ आ ही नहीं सकते थे, जहाँ हम आए हुए हैं, खड़े हुए हैं।
"प्रेम आगे की तरफ भागता है।"
अम्मा कहा करती थी। एक उम्र में माँ-बाप से ज्यादा बच्चों की फिक्र बनी रहती है। यह प्रकृति का नियम है। हमारे जैसे मामूली लोग, इसी नियम के घेरे में बँधे रहते हैं।

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आदमी के जीवन में ही यह क्यों हो जाता है? हर अनुभव, हर इम्प्रेशन, रोजमर्रा जीवन का कतरा-कतरा हाथ से निकलता चला जाता है। जीवन से छूटता चला जाता है। कोई भी भावना, कोई भी विचार, देर और दूर तक साथ नहीं आता है। न अपना एकान्त रह पाता है और न ही अपना सच। अपनी पुरानी और सच्ची लालसा तो बिल्कुल भी नहीं रह पाती। लालसा अपना स्वभाव बदलती चलती है। स्वभाव अपनी लालसा बदलता जाता है।

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...कभी जिस चेहरे पर लालसा और लालित्य को देखा था, वहाँ अब हार और हताशा को देखना कठिन रहेगा। यही तो होता है। हम सबके साथ होता है। यह सब सदियों से होता चला आ रहा है। उम्र के साथ-साथ जीवन के उतार के दिनों में हम सबके भीतर ही हताशा और हार अपना-अपना घर बसाने लगती है।

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वे कितने भोलेभाले, कितने सीधे-साधे, कितने हल्के-फुल्के दिन हुआ करते थे...

- जयशंकर की कहानी 'लालसा' से (वागर्थ, सितम्बर 2016)

Sunday, August 14, 2016

विलोपन (शैलेन्द्र सागर)

...भविष्यहीन जीवन मनुष्य में कैसी जड़ता, शुष्कता और निर्लिप्तता पैदा कर सकता है, इसका बड़ा सटीक दृष्टांत थीं मम्मी।

...उनकी पूंजी सिर्फ और सिर्फ अतीत था। उसी की स्मृतियां कभी उन्हें उल्लसित कर जातीं तो कभी उदास...

- शैलेन्द्र सागर की कहानी 'विलोपन' से ('हंस', अगस्त 2016)

Wednesday, July 6, 2016

नीचे के कपड़े (अमृता प्रीतम)

धर्मयुग (30 अक्तूबर। 1983) में प्रकाशित अमृता प्रीतम की कहानी 'नीचे के कपड़े'

लोगों के अतीत में  लुके-छिपे सेक्स संबंधों पर एक अच्छी कहानी