...इस बहुमाध्यमी (मल्टीमीडिया) दौर में संस्कृति के शास्त्रीय रूपों का वर्चस्व टूटा है और जनप्रियता का दबाव बढ़ा है। लगभग हर तरफ लोकप्रिय माध्यमों से आने वाला सम्प्रेषण शास्त्रीयता को अपदस्थ कर रहा है। भारतीय सन्दर्भों में देखें तो हमारे यहाँ होने वाले साहित्य उत्सवों में सिनेमा या टीवी से जुड़ी शख्सियतें हावी रहती हैं। गुलजार, जावेद अख्तर, प्रसून जोशी और इरफान से लेकर बरखा दत्त और राजदीप सरदेसाई तक ऐसे समारोहों की शोभा बढ़ाते देखे जाते हैं।...
बेशक, इन सबको देखकर यह हताशा भरा एहसास होता है कि समाज में औसतपन की कद्र बहुत तेजी से बढ़ी है और गम्भीर कला, विचार और साहित्य पीछे छूटे हैं।...
...यह एक बेसब्र, मनोरंजन से लेकर मुक्ति तक के तात्कालिक नुस्खे तलाशने वाली दुनिया है...
बेशक, इन सबको देखकर यह हताशा भरा एहसास होता है कि समाज में औसतपन की कद्र बहुत तेजी से बढ़ी है और गम्भीर कला, विचार और साहित्य पीछे छूटे हैं।...
...यह एक बेसब्र, मनोरंजन से लेकर मुक्ति तक के तात्कालिक नुस्खे तलाशने वाली दुनिया है...
- प्रियदर्शन ('नया ज्ञानोदय', नवम्बर 2016)