जामा मस्जिद के पास जब इरविन अस्पताल में था, तब भी बुरके वाली स्त्रियाँ अस्पताल आकर मुक्त हो जाती थी। एक मनोरोग विशेषज्ञ ने इस पर पेपर ही छपवा दिया — जामा मस्जिद सिंड्रोम। बड़ी किरकिरी हुई। बच गया कि फ़तवे नहीं जारी हुए। लिखा कि घरों में बंद स्त्रियाँ अस्पताल आकर खुली हवा में साँस लेती है। कहती हैं— पेट में, हाथाँ में, पैराँ में, छाती में दर्द है। जाँच करो तो कुछ नहीं। एक दफ़े मैं फँस गया।
“अपर्णा! लुक्स लाइक जामा मस्जिद सिन्ड्रोम! तू देख ले”
“फिर तो तू ही देख। शी नीड्स अ मैन!”
“मज़ाक़ नहीं कर रहा। और भी पेशेंट्स है। वह समय जाया कर रही है बस।”
“मैं भी मज़ाक़ नहीं कर रही।”
-प्रवीण कुमार झा की कहानी ‘जामा मस्जिद सिंड्रोम’ से (at jankipul.com)
An interesting concept - Jama Masjid syndrome.
