यह उन्नीस सौ सत्तर के आसपास का दौर था. हम गेहूँ के लिए अमेरिका के भरोसे रहा करते थे. अच्छी घड़ियाँ स्मगलिंग से बाजार में आती थी. स्कूटर खरीदने के लिए और घर में टेलिफोन लगवाने के लिए नम्बर लगवाना पड़ता था. वह इस देश का कोई दूसरा ही वक्त रहा था.
- जयशंकर की कहानी 'अगस्त और अतीत' से ('कथादेश', जनवरी 2013)
आज का दौर भी क्या कुछ दशकों के बाद इसी तरह अजीब-सा, 'कोई दूसरा ही वक्त' लगेगा?
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