Wednesday, August 20, 2014

हिरनी (चन्द्रकिरण सौनरेक्सा)

"राज़ी रहीं बीबीजी ! अच्छा, शादी हो गई ? मुबारिक।" उसने फुसफुसाकर कहा।

और सिर्फ पहचान करने-कराने को उसने जो बुरका उठा दिया था उसे फिर डाल लिया, हालाँकि उस समय वहाँ कोई मर्द न था।  खुदैजा के इस व्यवहार पर मुझे आश्चर्य हुआ। स्वच्छन्द हिरनी अब खूँटे से बँधी बकरी थी।

"वाह, अब तुम एकदम बन्दगोभी हो गई, भाभी !"

"हमेशा ही बेवकूफ थोड़ी ही बनी रहूँगी," उसने धीमे से उत्तर दिया, "अब तो अक्ल आ गई है।"

"अच्छा, अक्ल आ गई है ? अब तो बड़ी उर्दूदाँ बन गई हो। हमें तो भई नहीं आई अक्ल। उसी तरह बेलगाम घुमती हूँ....।"

- चन्द्रकिरण सौनरेक्सा की कहानी  'हिरनी' से

अपने बदले हुए सामाजिक परिवेश के प्रभाव से व्यक्ति न केवल बदलता है, बल्कि अपने पहले की आदतों, रुचियों, विचारों और मूल्यों को भी खारिज करने लगता है - यही है इस कहानी का कथ्य। कहानी प्रभावशाली बन पड़ी है।

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