Monday, February 24, 2014

आश्रम (राबिन शॉ पुष्प)


"तुम सिगरेट नहीं पीते हो, इसीलिए मुझे अच्छे लगते हो," फिर वह तेजी से पलटकर चली गयी थी.

मेरे हाथ में रह गयी थी प्याली और न छूकर भी छूने जैसा एक अहसास. उस  दिन, जीवन में पहली बार मैंने अनुभव किया था कि शब्दों के द्वारा भी बहुत भीतर तक स्पर्श किया जा सकता है.

तभी वह आ जाती है. मैं जल्दी से सिगरेट नीचे गिराकर, जूते से मसलने लगता  हूँ. यह देखकर वह भीतर जाती है, लौटकर मेरे सामने ऐश-ट्रे रख देती है, "जब से वे गुजरे हैं, इसमें किसी ने राख नहीं झाड़ी. तुम इत्मीनान से पीओ."

वह सामने बैठ जाती है.

"तुम्हें बुरा नहीं लगेगा?"

"क्यों? मैं भी पीती रही हूँ."

एक झटका लगता है मुझे.

- राबिन शॉ पुष्प की कहानी  'आश्रम' से ('कथादेश', जनवरी 2006)  


अंदर तक सिहर उठा मैं. सहसा मुझे लगा, एक पल में वह कितनी अपरिचित हो उठी  है.
- उसी कहानी से


कभी कभी हमारा कोई अंतरंग अपनी एक बात से अचानक कितना अजनबी-सा लगने लगता है.

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