Thursday, May 15, 2014

गंदी (प्रियंवद)

कितने आत्मविश्वाश से हर साँस के साथ एक नया झूठ बोल सकती है. एक झूठ सालों तक बोल सकती है. मुझे तो लगता है, एक साथ, एक ही समय में कई लोगों से बोल सकती है. अभिनय तो जैसे उसने घुट्टी में पिया है. कब अभिनय कर रही है और कब जीवन जी रही है - कोई माई का लाल पकड़ नहीं सकता।

नीले रंग की शाल के ऊपर उसका अबोध, पवित्र, निश्छल चेहरा दिख रहा था. वह ऐसा ही करती थी. एक पल में कोई भी मायाजाल रच सकती थी...

धीरे-धीरे मुझे अब सब कुछ साफ दिख रहा था. मेरा उसका सम्बन्ध कभी कुछ था ही नहीं सिवाय इसके, कि वह मुझे दुत्कारती रहे, मेरा उपहास करती रहे. मेरी भावनाओं को उकसाकर खिलौने की तरह मुझसे खेलती रहे.

बल्कि मैं अच्छी तरह जानता था कि वह ऐसा कुछ अप्रत्याशित करती रहती है.

ठीक है... होंगी मेरे मनुष्य होने की अपनी कल्पनाएँ, अपनी परिभाषाएँ... होंगी सम्बन्धों के गहन प्रेम पर आस्था... पर क्या जरुरी है दुसरे सब भी वही मानें ? वैसा ही सोचें ? वैसा ही आचरण करें ? ... आखिर मेरा सच ही सबका सच क्यों हो ?

- प्रियंवद की कहानी 'गंदी' से ('कथादेश', दिसम्बर 2012)

कहानी में protagonist के अनिश्चित और बदलते हुए मनोभाव दिखाए गए हैं - जो natural है, realistic है.

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