Thursday, April 24, 2014

शालभंजिका (मनीषा कुलश्रेष्ठ)

मैं आज भी हैरान हूँ कि आख़िर हम दोनों शुरू कहाँ से हुए थे कि हमने रिश्ते की, दोस्ती की, स्मृतियों की इतनी लम्बी रेल बना ली, जो आधी रात को बिना सिग्नल मेरी नींद से धड़धड़ा कर गुज़रती है और मैं चौंक कर जाग उठती हूँ।

- मनीषा कुलश्रेष्ठ के लघु उपन्यास 'शालभंजिका' से (''नया ज्ञानोदय', फरवरी 2011)

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