वह जो यथार्थ था
हर कोई अपने बचपन को याद करता है। क्या इसलिए कि बचपन बहुत आकर्षक और सुन्दर होता है? अगर ऐसा होता तो वे लोग क्यों याद करते जिनका बचपन यातनाओं से लहूलुहान था, जिन्होंने भूख और ज़िल्लत की चोटें सही थीं? ये सब किसको प्रिय हो सकता है, पर ऐसे बचपन को भी स्मरण करने की इच्छा होती है।
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बचपन… वह हमारे अंदर कहीं दुबका हुआ बैठा है, छिपने का खेल कर रहा है। अभी-अभी पकड़ में आ गया है तो शरमा रहा है।
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...किसी को अपने बचपन का चेहरा ठीक-ठीक याद नहीं रहता है। बचपन के अपने कपड़े, अपनी चाल, बोलने का ढंग वगैरह भी कहाँ याद रहते हैं। सही-सही यह भी याद करना कठिन होता है कि बचपन की जो चीज़ें याद आ रही हैं, उनकी ध्वनियाँ और रंग क्या थे। उनके काल और स्पेस के बारे में भी ठीक-ठीक कुछ नहीं कहा जा सकता है। हम क्षीण सी कौंध या धूसर धुँधली छवियों के सहारे बचपन के बिंबों को जगाते हैं।
हम कल ही की कई बातें भूल जाते हैं। आज और अभी की कुछ बातें अवसर पर याद नहीं आती हैं। तब क्या वजह है कि इतने साल पहले की स्मृतियाँ मिटती नहीं हैं? एक कारण यह लगता है कि बच्चा जिन वस्तुओं, घटनाओं से तादात्म्य बनाता है, उनके बारे में उसके पास पहले से प्राप्त अधिक जानकारियाँ नहीं होती है। यह थोड़ा सा पुराने ज़माने तक के बच्चों की बात है, जब टी.वी. नहीं था और सूचना-तंत्र का विस्फोट नहीं हुआ था। तब के बच्चों के पास चीज़ें सीधे पहुँचती थीं। ऐसा नहीं कि उनकी तस्वीरें और उनके विवरण पहले दाख़िल हो चुके हों और वे खुद बाद में उपस्थित हों। तो जैसा कि स्वाभाविक है, प्रत्यक्ष और अकस्मात् संपर्क का यह तरीक़ा स्मृति में टिकाऊ जगह बनाएगा।… दूसरी बात, बच्चे की दुनिया में बड़ों की दुनिया की तरह चेहरों, स्थानों, वस्तुओं, रंगों, आवाजों का घना जंगल नहीं होता। इस घने जंगल में कोई नया चेहरा या वस्तु आसानी से गुम हो जाएगी। …बच्चे के संसार में थोड़े लोग और मुट्ठी-भर अनुभव होते हैं और यदि नया कोई दाखिल होता है बच्चा पूरी ख़ुशी और ताकत से उसमें शरीक होता है, उसे अपने में शरीक करता है।… बच्चा बड़ों से ज्यादा तीव्र ढंग से अपने आसपास के जगत को ग्रहण और आत्मसात करता है।
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बच्चे बहुधा अपने से अधिक फ़िक्र अपने खिलौनों की करते हैं। …अपने बालों को उलझाए-बिखराए बिटिया अपनी गुड़िया के बालों में हरदम कंघी किया करती थी।
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इस लघु जंगल में एक पेड़ की पत्ती ऐसी थी कि चमड़ी पर घिस दो तो वह छिल जाए और खून निकल आए। एक पेड़ की पत्ती ऐसी थी जिसे खाने पर खटमिट्ठा लगता था।
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…उस दौर के अनुभव का असर अथवा उसका बिंब इतना चटख और स्वायत्त होता है...
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कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हमें कोई जगह भूल जाती है लेकिन उस जगह का थोड़ा सा हिस्सा, एक टुकड़ा, कोई कोना याद रह जाता है। काल की बेपनाह गर्द के नीचे से भी वह टुकड़ा झांकता रहता है।
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आजकल के घरों में आँगन नहीं होते हैं। पहले मिट्टीवाले आँगन ख़त्म हुए घरों से। फिर ईंटवाले-खड़ंजेवाले आँगन आए और गए। और फिर पलस्तरवाले भी। इसके बाद तो घरों से आँगन की अवधारणा ही ख़त्म हो गई। सितारों भरी रात अब घरों में नहीं दिखती। बच्चों का प्रिय, उनकी गेंदों का प्रिय आँगन अदृश्य हो गया।
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...राख के क्या कहने... । उसे पौधों पर छिटका दो तो उन्हें कीड़ों से बचाए, रोगों से बचाए।... राख से लोग हाथ माँजा करते थे, घर के बरतनों को राख से मलकर चमकाया जाता था।
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…हम डर या साहस, हर्ष या विषाद की वजहों को खोजने निकले नहीं हैं यहाँ। यहाँ हमारा काम डर-साहस, हर्ष-विषाद आदि की खोज करना है। वे वक़्त के टीले में या मलबे में दबे हुए हैं। उत्खनन करके उन्हें निकालना है। उन पर लगी गंदगी को झाड़-पोंछकर उन्हें चमकाना है और देखना है...।
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सच कहा जाए तो मनुष्य का अंत तक साथ निभानेवाली उसकी जीवन-भर की दोस्त उसकी यादें ही होती हैं। जीवन-भर का ही क्यों… मरने के बाद भी यदि आत्मा होती होगी तो उसमें भी यादें बसर करती होंगी। कई बार अख़बारों में पढ़ते हैं कि फलाँ व्यक्ति ने अपने पिछले किसी जन्म के बारे में बताना शुरू कर दिया है। यदि यह बात घपला या गोलमाल न होकर हक़ीक़त है तो कहा जा सकता है कि पिछले जन्म की यादें उसकी पिछले जन्म की काया के मिट्टी में मिल जाने के बाद भी मरी नहीं और वह आत्मा के साथ चिपकी हुई इस जन्म में भी चली आई।
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इसी पुड़ियावाले के पास अख़बार जितने रंग-बिरंगे पन्ने पर ढेर सारी पुड़िया चिपकी रहती थीं। यह क़िस्मत का खेल था जिसे खेलने के लिए दुकानदार को दो पैसा या पाँच पैसा (ठीक से याद नहीं) देना पड़ता था। बदले में चिपकी हुई पुड़िया में से मनचाही एक पुड़िया उचाट लेने (उखाड़ लेने) को मिलती थी। पुड़िया खुलने पर उसमें इनाम निकल सकता था। एक पैसा, पाँच पैसा या दस पैसा या चार आना या एक रुपया।… ज्यादातर तो कुछ भी नहीं निकलता था।
…बिना भौतिक आलंबन के कोई भी संवेदना या मनःस्थिति लंबे वक़्त तक नहीं बनी रह सकती।
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गुलामी के रौद्र पत्थर के नीचे दबी-पिसी स्त्रियों का आनंदोत्सव कब होता है ? यहाँ याद दिलाना ज़रूरी है कि बिना मुक्ति के आनंदोत्सव नहीं हो सकता है। तो स्त्रियाँ कब मुक्त महसूस करती हैं और आनंद भी अनुभव करती हैं ? और भी मौके होंगे, लेकिन इस नज़रिए से उल्लेखनीय है, जब ढेर सारी स्त्रियाँ पुरुषों की गंध और हाज़िरी से दूर इकठ्ठा होकर नृत्य-संगीत का आयोजन करती हैं। …अपने आनंदोत्सव में स्त्रियाँ गालियाँ भी बकती हैं, अश्लील लतीफ़े भी सुनाती हैं। …वे चाहती हैं कि वे इस तरह वक़्त बिताएँ जैसे मर्द बिताते हैं। …दो चीज़ें समझ में आ रही हैं कि एक तो जीवन में आनंद के लिए मुक्ति ज़रूरी है। जो जितने ही बंधन में होता है, उसके हिस्से में आनंद उतना ही थोड़ा होता है। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि कई स्त्रियों का जीवन पूरा हो जाता है या ख़त्म हो जाता है लेकिन वे आनंद की स्वाभाविक अनुभूति से वंचित रहती हैं। …दूसरी चीज़ समान साथ है। जैसे कि खेलते हुए बच्चों के बीच बड़ों की हाज़िरी उनकी ख़ुशी को कुम्हला देती है। इसी तरह स्त्रियों के बीच कोई पुरुष प्रकट हो जाए तो उनके आनंदोत्सव का पारा नीचे गिर जाएगा।
(pages 60-61)
…साइकिल को स्टैंड पर खड़ी कर पैडिल के जरिये साइकिल के पीछे के पहिए को जोर से नचाना अकेले का खेल था।
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मनोरंजन की अवधारणा आधुनिकता से संबद्ध है। जो समाज जितना आधुनिक होगा, उसमें मनोरंजन का महत्त्व उतना ही ज्यादा होगा।
(page 64)
दरअसल संस्मरण कभी भी पूर्ण सत्य नहीं हो सकते हैं। क्योंकि लिखनेवाले के पास पूरी की पूरी याद नहीं बची रह पाती है। कभी उसकी पूँछ पकड़ में आती है, कभी कोई हाथ या कभी उस हाथ की सिर्फ़ उँगलियाँ या कभी-कभी एक उँगली भर। अब उसी के सहारे लेखक बाक़ी को खोजता है या कभी-कभी गढ़ता भी है। यदा-कदा ऐसा भी होता है कि समय की बारिश में आपकी याद के रंग धुल जाते हैं, कोई हल्का सा रंग या रंग का धब्बा भर बचा रह पाता है। अब उस पर फिर से रंग भरना ही संस्मरण लिखना है।
(page 68)
बच्चों में ईश्वर की स्वीकृति नकारात्मक कारणों से - उसके पास दंड देने की सामर्थ्य की वजह से अधिक होती है जबकि बड़ों में इसका उल्टा होता है। बड़े ईश्वर को मानते हैं तो इसलिए कि वह मालामाल कर देगा। स्वस्थ रखेगा या स्वस्थ कर देगा। अच्छा घर, सुंदर पत्नी और निपुण बच्चे मिलेंगे। दीर्घायु मिलेगी। [विपत्तियों से बचने के लिए भी -
RKP]
ईश्वर का जो नकारात्मक पक्ष है कि वह दंड देता है, बड़े होने पर क्षीण हो जाता है। बड़े वध करते हैं, घूस लेते हैं, अत्याचार करते हैं, संसार की सारी बुराइयाँ बड़े ही करते हैं। यदि वे ईश्वर की दंड देने की आदत पर यक़ीन करते तो ऐसा क्यों होता? जबकि बच्चे प्रार्थनाएँ, पूजा और जाप नहीं करते, केवल बुरे काम से डरने के प्रसंग में ईश्वर को याद करते हैं। यदि बुरा काम करते समय ईश्वर के दंड को नहीं याद करते तो बाद में याद करते हैं और काँपते हैं। ऐसा आदिवासियों में भी होता है। वे भी ईश्वर की विनाश क्षमता, सज़ा देने की ताक़त के कारण ईश्वर से डरते हैं और ईश्वर को याद करते हैं। आदिवासी समाज भी तो सभ्यता का बचपन है।
(page 93)
ईश्वर अदृश्य था। वह किस्सों की सीढ़ियों से पहुँचा हुआ एक विश्वास था…
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वैसे भी बच्चे भविष्य के सपने देखने में ज्यादा यक़ीन नहीं रखते। उनके पास वर्तमान अधिक होता है… बच्चा क्यों बुने स्वप्न, उसका तो बीतनेवाला हर क्षण सपना होता है। पूरा बचपन ही क्या एक सपना नहीं है। एक निहायत कोमल, उनींदा और मुस्कुराता हुआ सपना। बड़ा हो जाने पर क्या ठगा-सा नहीं रह जाना पड़ता कि एक सपना था, जो टूट गया।
(page 98)
आदमी की ज़िंदगी में असंख्य बिंब निर्मित होते हैं। लाखों अनुभूतियाँ होती हैं। अनेक घटनाएँ घटित होती हैं। काल प्रवाह में आदमी का जिया हुआ वक़्त बेशुमार सीप-मोती वग़ैरह समेटे होता है, मगर उसकी याद में निवास कर पाती हैं कितनी थोड़ी सी स्मृतियाँ।
(page 99)
शायद ऐसा होता है कि स्मृतियों में कोई आत्मीय चरित्र हमेशा एक बच्चे जैसा ही अबोध, निष्पाप और लाचार दिखता है। पत्नी से बहुत दिनों तक दूर... अदृश्य रहने के बाद पत्नी के बारे में सोचिए - देर तक सोचिए - वह एक बच्ची की तरह मासूम मिलेगी। इतनी अधिक मासूम कि आप अपराध बोध से भर जाएँगे। आपको अपने अनेक अन्याय याद आ जाएँगे…
(page 105)
...कहीं ऐसा तो नहीं कि बचपन स्वभावतः हर चीज़ को ज्यादा अनुभव करता है। बचपन में कोई लंबा आदमी बहुत लंबा लगता है, कोई बौना ख़ूब बौना लगता है। बचपन में जो कुआँ अथाह गहरा लगा था, वह उतना गहरा नहीं था। जो तालाब बड़ा विपुल जलराशि वाला और विशाल लगा था, वैसा था नहीं।
(page 107)
Memories are always exaggerated and the place itself seemed smaller and less romantic than I remembered...
- Richie Benaud, Australian cricketer, in his book 'Willow Patterns'
ताज्जुब हो सकता है कि क़स्बे में मिनरल वाटर मिलता है, 555 सिगरेट मिलती है, यहाँ तक कि महँगी व्हिस्की मिलती है लेकिन क़स्बे में कहीं भी मैगजीन नहीं बिकती। जबकि पहले बिकती थीं।
(pages 110-111)
मैं और मेरा समय
फिर लेखक मौजूदा समय को लेकर क्यों रोता-सिसकता रहता है। उसका स्वर भिन्न क्यों है ? लेकिन ऐसा पहली मर्तबा नहीं हो रहा है। लगभग छह सौ वर्ष हुए, कबीरदास के दिल से हुक निकली थी, "सुखिया सब संसार है खावै औ सोवै, दुखिया दास कबीर है जागै औ रोवै।" जब सभी मस्ती कर रहे होते हैं... तब लेखक रोता है। जब सब लोग बेहोश रहते हैं, ग़ाफ़िल रहते हैं, उस वक़्त भी लेखक जाग रहा होता है। इसलिए लेखक वह सब भी देख लेता है, जो अन्य लोग सोते रहने के कारण नहीं देख पाते हैं। वह भोजन में मिले विष को, स्वागत में निहित साज़िश को, यात्रा में होनेवाली दुर्घटना को, सुंदर शरीर में छिपे रोग को देख लेता है, अतः रोता है।
जब कोई लेखक बनता है तो उसे एक शाप लग जाता है, जो एक तरह से वरदान भी होता है। उसके भीतर संवेदनात्मक ज्ञान की, ज्ञानात्मक संवेदना की, अतीन्द्रियता की, अग्नियाँ जल जाती हैं...
लेखक के भीतर जब इतनी सारी तपिश, रोशनी, ज्वाला और रासायनिक क्रियाएँ रहेंगी तो वहाँ चैन कैसे बचेगा। वह कैसे सो सकेगा ? ज्यादातर लेखक लंबे समय तक इस यातना को सह नहीं पाते हैं। लगातार जागने, जलने और रोने से वे थक जाते हैं, ऊब जाते हैं। वे आरामदेह बिस्तर पर गहन बेहोशी चाहने लगते हैं। तब वे अग्नियाँ बुझ जाती हैं।
(pages 118-119)