Thursday, December 25, 2014

The Man with a Naked Face (Ramaswamy Balakrishnan)

Prashanth realized very early that the key to getting what he wanted was to know what other people wanted. He studied the affairs of others very closely.
(p. 31)


He knew very early that his freedom came from the fact that others would never see his thoughts; that they would never know, unless he chose to reveal them. And that they would have to believe that what he told them was what he really thought.
(p. 32)


Arwindh loved the company of people who found pleasure in thinking, in challenging their own thoughts, in discussing their thoughts, openly in order to seek questions from others, and to discover the truth of their thoughts. Most such people liked to be alone by themselves. They never felt lonely alone... Others found him to be aloof.
(p. 54)


The man of power never dirties his own hands. He never acts alone. He needs other men to collude with him. The man of power carefully watches other men around him, especially any person who controls, regulates the flow of money. He will first get other men to track or to fish out all the information about this man - where he goes, what he does, what are his values, what does he believe in, who are his family, what are the problems he faces, what are his weaknesses, what is his past record, what are his ambitions etc... Then he'll entrap this person into some sense of fear, guilt, anger, or hatred with an objective of making this person serve his needs.

The club of the men of power is small and limited only to those who stand in the path of money. Most of the people who are not part of this exclusive club are workers - I call them slaves - who toil to keep the money flowing but do not control the flow. These people are encourages, motivated to keep working hard. And who are the men of power in this world... you just have to follow the flow of money - the industrialists, the religious heads or spiritual gurus, the criminals and the politicians. The politician is the most powerful as he controls all the people who control the administration of justice.
(p. 297)



Remember that these are men of supreme intellect anyway, but they use their intellect to find newer ways or newer victims to loot.
(p. 300)


When you are acting in collusion with other people, make sure to give the impression that you hate the sight of each other. Engage in public fights. Criticize, find fault in public.
(p. 301)


"Oh! You mean that if I accept this offer now, in this hall, I would be doing so based on the expectations of the rewards later, outside this hall?"

"But then wouldn't you be the one holding the cards outside this hall?... And the positions of power would be reversed. Correct?"

Prashanth realized that Arwindth had always been able to see the contradictions in his words, appearances and the eventual objectives that it sought to achieve.
(pp. 309-310)


Some people are adept at faking adherence to societal values, like the character Prashanth in this novel (he appears to be the hero in the initial part of the novel, and later becomes the villain). They do so to impress others or gain popularity in order to achieve their ends (power, money etc.). Since their adherence to the values is just a mask, it's easy for them to remove that mask when it is no longer needed to fake those values, leaving others stunned.

We often encounter people who appear to be quite nice, when we are useful or profitable for them, and as soon as we become useless for them, they would reveal an entirely different character.


Exactly what Prashanth does in this novel.

(RKP)


Friday, November 21, 2014

मनोहर श्याम जोशी की सम्पूर्ण कहानियाँ

सिल्वर वेडिंग
'दैट' मैं 'समहाउ इम्प्रॉपर फाइन्ड' करता हूँ।'

'ऐनी वे', मैं तुम्हें ऐसा करने से रोक नहीं रहा।

'परहैप्स' ऐसी चीज़ों के लिए 'रिटायर' होने के बाद का समय ही 'प्रॉपर' ठहरा। 

मनोहर श्याम जोशी की इस कहानी में पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध में सरकारी नौकरी करने वाले एक व्यक्ति का चरित्र चित्रण है। कहानी में नायक की समाज में फैलते नए चाल-चलन से बेचैनी, उचित-अनुचित के प्रति अतिसंवेदनशीलता, और हर बात में अंग्रेजी शब्द प्रयोग करने की प्रवृत्ति का अत्यंत रोचक और प्रामाणिक विवरण है। यह भी इंगित हुआ है कि नायक का world view, value system और behaviour pattern किस तरह उसके अपने ओहदे के गरिमा-बोध से निर्धारित होते हैं।

यह कहानी लेखक के प्रामाणिक अनुभव और पैनी दृष्टि की परिचायक है।

धरती, बीज और फल
फिर चारपाई की और जाते हुए उसने कानस पर रखे शीशे में उन गालों पर गौर किया जो रोज ब-रोज और ज्यादा पिचके जा रहे थे। धूमिल प्रकाश में उसका प्रतिबिम्ब विचित्र, किंचित् भूतिया-सा लग रहा था, जैसे वह उसका नहीं, उसकी मौत का चेहरा हो।
…लीला की खिलखिलाहट ने जलतरंग पर आरोह स्वर छेड़ दिये। 
कितना निरर्थक है मानव जीवन का व्यापार और कितना प्रखर, कितनी तीव्र, कितनी सार्थक है यह निरर्थकता।

ज़िन्दगी के चौराहे पर
…अक्टूबर के साफ़ नीले आकाश का वह विहँसता चेहरा, यह गुलाबी ठण्ड लिये हुए हवा के झोंके, दूर पीछे छूटे हुए बचपन में सुने गीत की एकाएक याद आयी हुई वे कड़ियाँ और यह छुट्टी का पहला दिन… 
वही पिटी-पिटायी प्रेम कहानी। दो लड़के, एक लड़की, दो लड़कियाँ, एक लड़का - प्रेम का त्रिभुज। प्रेम न हुआ, ट्रिग्नोमेट्री हो गयी।  


Monday, November 3, 2014

वह जो यथार्थ था (अखिलेश)

वह जो यथार्थ था

हर कोई अपने बचपन को याद करता है। क्या इसलिए कि बचपन बहुत आकर्षक और सुन्दर होता है? अगर ऐसा होता तो वे लोग क्यों याद करते जिनका बचपन यातनाओं से लहूलुहान था, जिन्होंने भूख और ज़िल्लत की चोटें सही थीं? ये सब किसको प्रिय हो सकता है, पर ऐसे बचपन को भी स्मरण करने की इच्छा होती है।
(page 11)



बचपन… वह हमारे अंदर कहीं दुबका हुआ बैठा है, छिपने का खेल कर रहा है। अभी-अभी पकड़ में आ गया है तो शरमा रहा है।
(page 12)




...किसी को अपने बचपन का चेहरा ठीक-ठीक याद नहीं रहता है। बचपन के अपने कपड़े, अपनी चाल, बोलने का ढंग वगैरह भी कहाँ याद रहते हैं। सही-सही यह भी याद करना कठिन होता है कि बचपन की जो चीज़ें याद आ रही हैं, उनकी ध्वनियाँ और रंग क्या थे। उनके काल और स्पेस के बारे में भी ठीक-ठीक कुछ नहीं कहा जा सकता है। हम क्षीण सी कौंध या धूसर धुँधली छवियों के सहारे बचपन के बिंबों को जगाते हैं।

हम कल ही की कई बातें भूल जाते हैं। आज और अभी की कुछ बातें अवसर पर याद नहीं आती हैं। तब क्या वजह है कि इतने साल पहले की स्मृतियाँ मिटती नहीं हैं? एक कारण यह लगता है कि बच्चा जिन वस्तुओं, घटनाओं से तादात्म्य बनाता है, उनके बारे में उसके पास पहले से प्राप्त अधिक जानकारियाँ नहीं होती है। यह थोड़ा सा पुराने ज़माने तक के बच्चों की बात है, जब टी.वी. नहीं था और सूचना-तंत्र का विस्फोट नहीं हुआ था। तब के बच्चों के पास चीज़ें सीधे पहुँचती थीं। ऐसा नहीं कि उनकी तस्वीरें और उनके विवरण पहले दाख़िल हो चुके हों और वे खुद बाद में उपस्थित हों। तो जैसा कि स्वाभाविक है, प्रत्यक्ष और अकस्मात् संपर्क का यह तरीक़ा स्मृति में टिकाऊ जगह बनाएगा।… दूसरी बात, बच्चे की दुनिया में बड़ों की दुनिया की तरह चेहरों, स्थानों, वस्तुओं, रंगों, आवाजों का घना जंगल नहीं होता। इस घने जंगल में कोई नया चेहरा या वस्तु आसानी से गुम हो जाएगी। …बच्चे के संसार में थोड़े लोग और मुट्ठी-भर अनुभव होते हैं और यदि नया कोई दाखिल होता है बच्चा पूरी ख़ुशी और ताकत से उसमें शरीक होता है, उसे अपने में शरीक करता है।… बच्चा बड़ों से ज्यादा तीव्र ढंग से अपने आसपास के जगत को ग्रहण और आत्मसात करता है।
(page 13)



बच्चे बहुधा अपने से अधिक फ़िक्र अपने खिलौनों की करते हैं। …अपने बालों को उलझाए-बिखराए बिटिया अपनी गुड़िया के बालों में हरदम कंघी किया करती थी।
(page 16)



इस लघु जंगल में एक पेड़ की पत्ती ऐसी थी कि चमड़ी पर घिस दो तो वह छिल जाए और खून निकल आए। एक पेड़ की पत्ती ऐसी थी जिसे खाने पर खटमिट्ठा लगता था।
(page 18)



…उस दौर के अनुभव का असर अथवा उसका बिंब इतना चटख और स्वायत्त होता है...
(page 19)



कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हमें कोई जगह भूल जाती है लेकिन उस जगह का थोड़ा सा हिस्सा, एक टुकड़ा, कोई कोना याद रह जाता है। काल की बेपनाह गर्द के नीचे से भी वह टुकड़ा झांकता रहता है।
(page 24)



आजकल के घरों में आँगन नहीं होते हैं। पहले मिट्टीवाले आँगन ख़त्म हुए घरों से। फिर ईंटवाले-खड़ंजेवाले आँगन आए और गए। और फिर पलस्तरवाले भी। इसके बाद तो घरों से आँगन की अवधारणा ही ख़त्म हो गई। सितारों भरी रात अब घरों में नहीं दिखती। बच्चों का प्रिय, उनकी गेंदों का प्रिय आँगन अदृश्य हो गया।
(page 25)



...राख के क्या कहने... । उसे पौधों पर छिटका दो तो उन्हें कीड़ों से बचाए, रोगों से बचाए।... राख से लोग हाथ माँजा करते थे, घर के बरतनों को राख से मलकर चमकाया जाता था।
(page 28)



…हम डर या साहस, हर्ष या विषाद की वजहों को खोजने निकले नहीं हैं यहाँ। यहाँ हमारा काम डर-साहस, हर्ष-विषाद आदि की खोज करना है। वे वक़्त के टीले में या मलबे में दबे हुए हैं। उत्खनन करके उन्हें निकालना है। उन पर लगी गंदगी को झाड़-पोंछकर उन्हें चमकाना है और देखना है...।
(page 34)



सच कहा जाए तो मनुष्य का अंत तक साथ निभानेवाली उसकी जीवन-भर की दोस्त उसकी यादें ही होती हैं। जीवन-भर का ही क्यों… मरने के बाद भी यदि आत्मा होती होगी तो उसमें भी यादें बसर करती होंगी। कई बार अख़बारों में पढ़ते हैं कि फलाँ व्यक्ति ने अपने पिछले किसी जन्म के बारे में बताना शुरू कर दिया है। यदि यह बात घपला या गोलमाल न होकर हक़ीक़त है तो कहा जा सकता है कि पिछले जन्म की यादें उसकी पिछले जन्म की काया के मिट्टी में मिल जाने के बाद भी मरी नहीं और वह आत्मा के साथ चिपकी हुई इस जन्म में भी चली आई।
(page 40)



इसी पुड़ियावाले के पास अख़बार जितने रंग-बिरंगे पन्ने पर ढेर सारी पुड़िया चिपकी रहती थीं। यह क़िस्मत का खेल था जिसे खेलने के लिए दुकानदार को दो पैसा या पाँच पैसा (ठीक से याद नहीं) देना पड़ता था। बदले में चिपकी हुई पुड़िया में से मनचाही एक पुड़िया उचाट लेने (उखाड़ लेने) को मिलती थी। पुड़िया खुलने पर उसमें इनाम निकल सकता था। एक पैसा, पाँच पैसा या दस पैसा या चार आना या एक रुपया।… ज्यादातर तो कुछ भी नहीं निकलता था।


…बिना भौतिक आलंबन के कोई भी संवेदना या मनःस्थिति लंबे वक़्त तक नहीं बनी रह सकती।
(page 47)



गुलामी के रौद्र पत्थर के नीचे दबी-पिसी स्त्रियों का आनंदोत्सव कब होता है ? यहाँ याद दिलाना ज़रूरी है कि बिना मुक्ति के आनंदोत्सव नहीं हो सकता है। तो स्त्रियाँ कब मुक्त महसूस करती हैं और आनंद भी अनुभव करती हैं ? और भी मौके होंगे, लेकिन इस नज़रिए से उल्लेखनीय है, जब ढेर सारी स्त्रियाँ पुरुषों की गंध और हाज़िरी से दूर इकठ्ठा होकर नृत्य-संगीत का आयोजन करती हैं। …अपने आनंदोत्सव में स्त्रियाँ गालियाँ भी बकती हैं, अश्लील लतीफ़े भी सुनाती हैं। …वे चाहती हैं कि वे इस तरह वक़्त बिताएँ जैसे मर्द बिताते हैं। …दो चीज़ें समझ में आ रही हैं कि एक तो जीवन में आनंद के लिए मुक्ति ज़रूरी है। जो जितने ही बंधन में होता है, उसके हिस्से में आनंद उतना ही थोड़ा होता है। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि कई स्त्रियों का जीवन पूरा हो जाता है या ख़त्म हो जाता है लेकिन वे आनंद की स्वाभाविक अनुभूति से वंचित रहती हैं। …दूसरी चीज़ समान साथ है। जैसे कि खेलते हुए बच्चों के बीच बड़ों की हाज़िरी उनकी ख़ुशी को कुम्हला देती है। इसी तरह स्त्रियों के बीच कोई पुरुष प्रकट हो जाए तो उनके आनंदोत्सव का पारा नीचे गिर जाएगा।
(pages 60-61)



…साइकिल को स्टैंड पर खड़ी कर पैडिल के जरिये साइकिल के पीछे के पहिए को जोर से नचाना अकेले का खेल था।
(page 62)



मनोरंजन की अवधारणा आधुनिकता से संबद्ध है। जो समाज जितना आधुनिक होगा, उसमें मनोरंजन का महत्त्व उतना ही ज्यादा होगा।
(page 64)



दरअसल संस्मरण कभी भी पूर्ण सत्य नहीं हो सकते हैं। क्योंकि लिखनेवाले के पास पूरी की पूरी याद नहीं बची रह पाती है। कभी उसकी पूँछ पकड़ में आती है, कभी कोई हाथ या कभी उस हाथ की सिर्फ़ उँगलियाँ या कभी-कभी एक उँगली भर। अब उसी के सहारे लेखक बाक़ी को खोजता है या कभी-कभी गढ़ता भी है। यदा-कदा ऐसा भी होता है कि समय की बारिश में आपकी याद के रंग धुल जाते हैं, कोई हल्का सा रंग या रंग का धब्बा भर बचा रह पाता है। अब उस पर फिर से रंग भरना ही संस्मरण लिखना है।
(page 68)



बच्चों में ईश्वर की स्वीकृति नकारात्मक कारणों से - उसके पास दंड देने की सामर्थ्य की वजह से अधिक होती है जबकि बड़ों में इसका उल्टा होता है। बड़े ईश्वर को मानते हैं तो इसलिए कि वह मालामाल कर देगा। स्वस्थ रखेगा या स्वस्थ कर देगा। अच्छा घर, सुंदर पत्नी और निपुण बच्चे मिलेंगे। दीर्घायु मिलेगी। [विपत्तियों से बचने के लिए भी - RKP]

ईश्वर का जो नकारात्मक पक्ष है कि वह दंड देता है, बड़े होने पर क्षीण हो जाता है। बड़े वध करते हैं, घूस लेते हैं, अत्याचार करते हैं, संसार की सारी बुराइयाँ बड़े ही करते हैं। यदि वे ईश्वर की दंड देने की आदत पर यक़ीन करते तो ऐसा क्यों होता? जबकि बच्चे प्रार्थनाएँ, पूजा और जाप नहीं करते, केवल बुरे काम से डरने के प्रसंग में ईश्वर को याद करते हैं। यदि बुरा काम करते समय ईश्वर के दंड को नहीं याद करते तो बाद में याद करते हैं और काँपते हैं। ऐसा आदिवासियों में भी होता है। वे भी ईश्वर की विनाश क्षमता, सज़ा देने की ताक़त के कारण ईश्वर से डरते हैं और ईश्वर को याद करते हैं। आदिवासी समाज भी तो सभ्यता का बचपन है। 
(page 93)



ईश्वर अदृश्य था। वह किस्सों की सीढ़ियों से पहुँचा हुआ एक विश्वास था…
(page 94)



वैसे भी बच्चे भविष्य के सपने देखने में ज्यादा यक़ीन नहीं रखते। उनके पास वर्तमान अधिक होता है… बच्चा क्यों बुने स्वप्न, उसका तो बीतनेवाला हर क्षण सपना होता है। पूरा बचपन ही क्या एक सपना नहीं है। एक निहायत कोमल, उनींदा और मुस्कुराता हुआ सपना। बड़ा हो जाने पर क्या ठगा-सा नहीं रह जाना पड़ता कि एक सपना था, जो टूट गया।
(page 98)



आदमी की ज़िंदगी में असंख्य बिंब निर्मित होते हैं। लाखों अनुभूतियाँ होती हैं। अनेक घटनाएँ घटित होती हैं। काल प्रवाह में आदमी का जिया हुआ वक़्त बेशुमार सीप-मोती वग़ैरह समेटे होता है, मगर उसकी याद में निवास कर पाती हैं कितनी थोड़ी सी स्मृतियाँ।
(page 99)



शायद ऐसा होता है कि स्मृतियों में कोई आत्मीय चरित्र हमेशा एक बच्चे जैसा ही अबोध, निष्पाप और लाचार दिखता है। पत्नी से बहुत दिनों तक दूर... अदृश्य रहने के बाद पत्नी के बारे में सोचिए - देर तक सोचिए - वह एक बच्ची की तरह मासूम मिलेगी। इतनी अधिक मासूम कि आप अपराध बोध से भर जाएँगे। आपको अपने अनेक अन्याय याद आ जाएँगे…
(page 105)



...कहीं ऐसा तो नहीं कि बचपन स्वभावतः हर चीज़ को ज्यादा अनुभव करता है। बचपन में कोई लंबा आदमी बहुत लंबा लगता है, कोई बौना ख़ूब बौना लगता है। बचपन में जो कुआँ अथाह गहरा लगा था, वह उतना गहरा नहीं था। जो तालाब बड़ा विपुल जलराशि वाला और विशाल लगा था, वैसा था नहीं।
(page 107)


Memories are always exaggerated and the place itself seemed smaller and less romantic than I remembered...
- Richie Benaud, Australian cricketer, in his book 'Willow Patterns' 


ताज्जुब हो सकता है कि क़स्बे में मिनरल वाटर मिलता है, 555 सिगरेट मिलती है, यहाँ तक कि महँगी व्हिस्की मिलती है लेकिन क़स्बे में कहीं भी मैगजीन नहीं बिकती। जबकि पहले बिकती थीं।
(pages 110-111)



मैं और मेरा समय 

फिर लेखक मौजूदा समय को लेकर क्यों रोता-सिसकता रहता है। उसका स्वर भिन्न क्यों है ? लेकिन ऐसा पहली मर्तबा नहीं हो रहा है। लगभग छह सौ वर्ष हुए, कबीरदास के दिल से हुक निकली थी, "सुखिया सब संसार है खावै औ सोवै, दुखिया दास कबीर है जागै औ रोवै।" जब सभी मस्ती कर रहे होते हैं... तब लेखक रोता है। जब सब लोग बेहोश रहते हैं, ग़ाफ़िल रहते हैं, उस वक़्त भी लेखक जाग रहा होता है। इसलिए लेखक वह सब भी देख लेता है, जो अन्य लोग सोते रहने के कारण नहीं देख पाते हैं। वह भोजन में मिले विष को, स्वागत में निहित साज़िश को, यात्रा में होनेवाली दुर्घटना को, सुंदर शरीर में छिपे रोग को देख लेता है, अतः रोता है।

जब कोई लेखक बनता है तो उसे एक शाप लग जाता है, जो एक तरह से वरदान भी होता है। उसके भीतर संवेदनात्मक ज्ञान की, ज्ञानात्मक संवेदना की, अतीन्द्रियता की, अग्नियाँ जल जाती हैं...

लेखक के भीतर जब इतनी सारी तपिश, रोशनी, ज्वाला और रासायनिक क्रियाएँ रहेंगी तो वहाँ चैन कैसे बचेगा। वह कैसे सो सकेगा ? ज्यादातर लेखक लंबे समय तक इस यातना को सह नहीं पाते हैं। लगातार जागने, जलने और रोने से वे थक जाते हैं, ऊब जाते हैं। वे आरामदेह बिस्तर पर गहन बेहोशी चाहने लगते हैं। तब वे अग्नियाँ बुझ जाती हैं।
(pages 118-119)



Friday, October 24, 2014

Sea of Poppies (Amitav Ghosh)

...she remembered how, as children, she and her playmates had laughed at the afeemkhors of their village - the habitual opium-eaters. who sat always as if in a dream, staring at the sky with dull, dead eyes. Of all the possibilities she had thought of, this was one she had not allowed for: that she might be marrying an afeemkhor - an addict. [unpredictability of life - RKP] [page 34]


...how frail a creature was a human being, to be tamed by such tiny doses of this substance!... a little bit of this gum could give her such power over the life, the character, the very soul of this elderly woman.... [page 38]



...I've seen many a Christian trying to buy his way into heaven... [page 136]



Paulette's eyes misted over at the thought of those childhood years, when she and her father had lived with Jodu and Tantima, as though their bungalow were an island of innocence in a sea of corruption. [ephemerality] [page 137]



...she might then have two or three copper dumrees left - maybe even as much as an adhela... [page 155]



The names of the settlements on the banks... Patna, Bakhtiyarpur, Teghra... [page 240] 

Occasionally, when some storied town or city came into view, Kalua would go down to let Deeti know: Barauni!  Munger[page 240] 

...if they happened to be in the vicinity of some populous town, like Patna, Munger or Bhagalpur... [page 240] 

So absorbing was this subject that it kept them occupied from Ghoga to Pirpainti... [page 241] 

At Sahibganj, where the river turned southwards, there were forty men waiting - hills-men from the plateaus of Jharkhand. [page 245]



...it seemed intolerably unjust that Jodu should be able to go to this island while she, Paulette, with all her prior claims, could not. [randomness and unpredictability of life; quirks and swings of fate; the zamindar of Raskhali is another example in the novel - RKP[page 254]




In February the price of the best Patna opium had sunk to four hundred and fifty dollars a chest. ['the best Patna opium' reminds me of 'the best Darjeeling tea' - RKP[page 259]



The sepoys responded by pinning Neel's arms to his side... Neel's struggles presented no challenge to them and they quickly tore off the remnants of his clothing... to fully expose his naked body to his jailers' scrutiny. [transience - RKP] [page 288]


The truth is, sir, that men do what their power permits them to do. [page 262] 
...power made its bearers act in inexplicable ways... the whims of masters could be, at times, kind as well as cruel... [page 305]


In order to turn the convicts against each other, the subedar would sometimes give one an extra helping of food... [page 384]
 

To fear and be feared is all he's ever known... [page 434]



...all those beings who were ensnared [=trapped] by the illusory differences of this world. [transience - RKP[page 503]



The first of the Ibis triology by Amitav Ghosh - shortlisted for the Man Booker Prize 2008.

A story of unbelievable incidents and coincidences - much like a detective novel or a Bollywood masala movie. But then Amitav Ghosh is perhaps not known for storytelling; he excels in history-telling. The story is but a vehicle to take his readers around the by-lanes of history.


Wednesday, October 15, 2014

पीटरसन एन्ड पीटरसन और मसूरी का सफ़र (मृदुला गर्ग)

…हमें तुरन्त नींद ने आ दबोचा। … अगली सुबह आँख खुली तो आठ बजा चाहते थे... खुमारी को झटक बाहोश हुए तो...


मेरा अनुभव है, जब बदन पर थकान हावी हो तो हम बेसाख्ता, छोटे-छोटे जुमलों में सच बोल जाते हैं।

- मृदुला गर्ग की कहानी 'पीटरसन एन्ड पीटरसन और मसूरी का सफ़र' से ('नया ज्ञानोदय', अगस्त 2007)

Saturday, September 27, 2014

ग़ालिब छुटी शराब (रवीन्द्र कालिया)

मुझे आज लगता है, श्याममोहन की अकाल मृत्यु के लिए कहीं-न-कहीं ऐसे दफ़्तरी राक्षसों का नपा-तुला योगदान ज़रूर है। अफ़सरों की ऐसी ही कुंठाएँ मुझे लेखकीय स्तर पर हमेशा प्रेरित करतीं।
[page 74]



वह उम्र ही ऐसी थी कि जो भी दोस्त प्यार में मुब्तिला होता, सबसे पहले अपने दोस्तों से कट जाता।
[page 112]



आदमी को समय पर घूस का महात्‍म्‍य समझ में आ जाए तो पथ निष्कंटक हो जाता है, उस पर फूल बिखर जाते हैं। देखा गया है, जो लोग सही वक्‍त पर इस पाठ में निरक्षर रह जाते हैं, वह फिर अविवाहित लोगों की तरह सनकी हो जाते हैं...
[page 115]



उन दिनों यह 'धर्मयुग' का दस्तूर था कि जिस पर भारती जी की कृपा दृष्टि रहती थी, सब सहकर्मी उससे सट कर चलते थे, जिससे भारती जी ख़फ़ा, उससे पूरा स्टाफ भयभीत।
[page 131]



दफ़्तर में डॉ. धर्मवीर भारती एक कुशल प्रशासक की तरह 'डिवाइड ऐंड रूल' में विश्वास रखते थे। उपसम्पादकों को एक साथ कहीं देख लेते तो उनकी भृकुटी तन जाती। बहुत जल्दी इसके परिणाम दिखायी देने लगते। किसी को अचानक डबल इन्क्रीमेंट मिल जाता। किसी एक से सपारिश्रमिक अधिक लिखवाने लगते। किसी एक का वजन अचानक बढ़ने लगता। कोई एक अचानक देवदास की तरह उदास दिखने लगता। चुगली से बाज़ रहने वाला आदमी अचानक चुगली में गहरी दिलचस्पी लेने लगता। सम्पादक के कृपापात्र को सब संशय से देखने लगते। वह भरे दफ़्तर में अकेला हो जाता। 
[page 133]



मैंने बहुत पहले फैज़ की राय गाँठ बाँध ली थी और अपने को खुश्क पत्तों की तरह हवाओं के हवाले कर दिया था।
[page 148]



इलाहाबाद आने से पूर्व मैं दिल्ली और मुम्बई में भी वर्षों रहा, मगर जो अनुभव और झटके इलाहाबाद ने दिये वह इलाहाबाद ही दे सकता था। असहमति, विरोध, अस्वीकार और आक्रामकता इलाहाबाद का मूल तेवर है। इलाहाबाद की पीटने में ज्यादा रूचि रहती है।... नेहरु ख़ानदान का भी काले झंडों से जितना स्वागत इलाहाबाद में हुआ होगा, वह अन्यत्र सम्भव नहीं।
[page 157]



सब मित्रों से घर बैठे-बैठे मुलाक़ात हो जाती थी, मुलाक़ात ही नहीं, कभी-कभी मुक्कालात भी।
[page 162]


समय का पहिया दाम्पत्य को रौंदता हुआ बहुत दूर निकल चुका था, इतना दूर कि उसके पास मुड़कर देखने का भी विकल्प न बचा था।
[page 178]



वह शाम शायद इसलिए भी याद रह गयी कि लक्ष्मीधर ने उस शाम की अनेक छवियाँ कैमरे में क़ैद की थीं और ढेरों चित्र भिजवाये थे। आज भी वे चित्र हाथ लग जाते हैं तो शाम बोल-बोल उठती है।
[page 178]



इस नश्वर संसार में हर चीज टूटने के लिए ही बनती है।
[page 185]



पिता जीवन भर डीएवी शिक्षण संस्थाओं से जुड़े रहे। जब तक उनका बस चला, उन्होंने घर में शुद्धतावादी आर्यसमाजी अनुशासन कायम रखने की भरपूर कोशिश की, मगर मुझे उस माहौल में वैसी ही घुटन महसूस होती जो हवन की गीली लकड़ी के ठीक से आग न पकड़ने पर उसके धुएँ से होती है। इस उलझन से बचने के लिए मैं बहुत कम पिता के सामने पड़ता था। वह नीचे आते तो मैं ऊपर चला जाता, वह ऊपर बैठते तो मैं नीचे। सिगरेट की लत ने भी मुझे परिवार से दूर कर दिया था।
[page 194]



मेरा ईमान क्या पूछती हो मुन्नी
शिया के साथ शिया सुन्नी के साथ सुन्नी
[page 197]



...शुभा [मुदगल] के पिता स्कन्दगुप्त फैज़ के ज़बरदस्त फैन थे… उन्होंने फैज़ के कार्यक्रमों पर मूवी कैमरे से फिल्म बनाई थी।... वह भारत के मान्यता प्राप्त क्रिकेट कमेंटेटर भी थे।
[page 198]



वह चाय सुड़कते हुए मुझे गालियाँ देने लगा। पंजाब में गालियों से ही आत्मीयता प्रदर्शित की जाती है।
[page 207]



प्रयाग का यह फक्कड़ अंदाज़ आज भी रचनाकारों को आकर्षित करता है। मुफ़लिसी यहाँ अभिशाप नहीं, सहज स्वीकार्य है। सुविधाओं, पुरस्कारों और सम्मानों की अन्धी दौड़ यहाँ के माहौल से एकदम नदारद है।
[page 211]



उसके पास जितना पैसा आता उसी अनुपात में वह कर्मकांडी होता जाता।
[page 261]



मैं भीड़ से हटकर एक चबूतरे पर बैठकर पिता का अन्तिम संस्कार देखता रहा। मुझे लग रहा था, जैसे पिता की चिता के साथ-साथ मेरा बचपन, मेरी स्मृतियाँ, मेरा समूचा अतीत आज जलकर राख हो जाएगा।
[page 286]



एक दिन में पूरे घर का नक्शा बदल गया था। पूरा घर अजनबी और वीरान हो उठा था, जैसे रात भर में सबकुछ उजड़ गया हो। घर का फर्नीचर तक उदास था, दीवारें सूनी थीं, पंखे जैसे सूली पर लटक रहे थे। भाँय-भाँय कर रहा था पूरा माहौल।
[page 292]



“पापा को आज ही जाना था, आज हमारी शादी की सालगिरह थी।” भैया ने बताया कि बॉडी मार्च्युरी में रखवा दी है। उनकी आवाज़ से लग रहा था, वह मुझसे बेहतर स्थिति में नहीं हैं। मुझे अचानक नशे में भी लगा जैसे ‘कफ़न’ के घीसू और माधो आपस में बातचीत कर रहे हों। हम दोनों की ज़ुबान लटपटा रही थी। घीसू ने फ़ोन रख दिया और माधो ने रजाई ओढ़ ली।
[page 296]

Friday, August 29, 2014

किंग लियर (मृणाल पाण्डे)

'किंग-लियर' शेक्सपीयर के लिखे चार महान त्रासदी-नाटकों में से एक है। नाटक का नायक राजा लियर एक भव्य और भयावह पात्र है। उसकी मार्फत शेक्सपीयर दर्शकों को मानवीय रिश्तों के सबसे गोपनीय तलघर को ले जाने वाली सीढ़ियों से उतारते हुए उन्हें अंतिम जीवन-सत्य के आतंकित करनेवाले स्वरुप के सामने ला खड़ा करता है। गर्वीला, उदार और अहंवादी बूढ़ा राजा लियर एक दिन तै कर लेता है कि अब उसे राज-पाट त्यागकर संन्यास ले लेना चाहिए। तब तक वह यह नहीं समझ पाया है कि राज-पाट त्यागने का एक अर्थ अपना दबंग राजसी स्वभाव और राजकीय शक्ति को भी त्यागना होता है और यही चूक उसकी त्रासदी का मूल बन जाती है।

- मृणाल पाण्डे 'कादम्बिनी' में एक सम्पादकीय में


Sunday, August 24, 2014

How Everything Changes!

Frail and propped up in a chair, Mr Jha wasn’t quite the man I knew. His memory seemed intact but he was upset about not being able to work. “I just can’t depend on others and remain idle,” he said. He also told me that the man employed as his carer was not kind to him. How everything changes—the strong, flamboyant editor I’d held in awe was suddenly so vulnerable.


- From a memoir by Mohan Sivanand

Friday, August 22, 2014

जलती झाड़ी (निर्मल वर्मा)

मायादर्पण
...तरन देर तक भाई के बारे में सोचती रही थी। कितने बरसों से उन्हें नहीं देखा है !...अब तक तो शायद वह बिलकुल बदल गए होंगे... 
एक धुँधली-सी तस्वीर आँखों के सामने उभर जाती है, कहीं बहुत दूर, चाय के बागों के झुरमुट में उनका बंगला छिपा होगा। कहते हैं, वहाँ स्टीमर पर जाना पड़ता है। न जाने, स्टीमर में बैठकर कैसा लगता होगा !
किसी आत्मीय की सुदूर, अनजानी जिंदगी के बारे में सोचना।

निर्मल वर्मा की यह एक जानी-मानी कहानी है, जिस पर इसी नाम से राष्ट्रीय पुरस्कार-प्राप्त फिल्म भी बन चुकी है। पर मुझे तो नहीं जमी।

A Good Man Is Hard To Find (Flannery O'Connor)

"These days you don't know who to trust." 
"People are certainly not nice like they used to be."
"Everything is getting terrible." 
- Two old people talking, in the short story 'A Good Man Is Hard To Find' by Flannery O'Connor

It is a very popular short story. I didn't like it though. Maybe because it alludes to certain subtleties of the Christian faith that I am not familiar with.

Wednesday, August 20, 2014

हिरनी (चन्द्रकिरण सौनरेक्सा)

"राज़ी रहीं बीबीजी ! अच्छा, शादी हो गई ? मुबारिक।" उसने फुसफुसाकर कहा।

और सिर्फ पहचान करने-कराने को उसने जो बुरका उठा दिया था उसे फिर डाल लिया, हालाँकि उस समय वहाँ कोई मर्द न था।  खुदैजा के इस व्यवहार पर मुझे आश्चर्य हुआ। स्वच्छन्द हिरनी अब खूँटे से बँधी बकरी थी।

"वाह, अब तुम एकदम बन्दगोभी हो गई, भाभी !"

"हमेशा ही बेवकूफ थोड़ी ही बनी रहूँगी," उसने धीमे से उत्तर दिया, "अब तो अक्ल आ गई है।"

"अच्छा, अक्ल आ गई है ? अब तो बड़ी उर्दूदाँ बन गई हो। हमें तो भई नहीं आई अक्ल। उसी तरह बेलगाम घुमती हूँ....।"

- चन्द्रकिरण सौनरेक्सा की कहानी  'हिरनी' से

अपने बदले हुए सामाजिक परिवेश के प्रभाव से व्यक्ति न केवल बदलता है, बल्कि अपने पहले की आदतों, रुचियों, विचारों और मूल्यों को भी खारिज करने लगता है - यही है इस कहानी का कथ्य। कहानी प्रभावशाली बन पड़ी है।

Friday, August 15, 2014

मृत्यु

मरने वाले के साथ थोड़ा हम भी मर जाते हैं।
- प्रियदर्शन, एक ब्लॉग में

लेखन यानी क्रूरता के लिए भी संवेदना

किसी किसान के पास एक गाय थी. गाय ने बछड़ा दिया और बछड़ा मर गया. किसान दूध निकालने के लिये गाय को इन्जेक्श्न देता, बांध देता. घटना बस इतनी है। 
बकौल मधुकर सिंह इस घटना को आम आदमी के नजरिए से देखा जाए तो किसान क्रूर नज़र आता है. दूध निकालने के लिए पशुता पर उतारू हो जाता है. किन्तु जब इसी घटना को एक लेखक देखता है तो उसे याद आता है कि किसान ने जब गाभिन गाय खरीदी तो उसके घर के उपर छप्पर नही था. उसके बच्चे के देह पर कपडे नही थे. उसकी सोच थी कि गाय का दूध बेच कर वह यह सब कर लेगा. लेकिन उसपर तो विप्पति का जैसे पहाड टूट पडा. बच्चे का कपडा भी नही छप्पर भी नही और बछडा भी नही. तब किसान को क्रूरता अपनानी पडी. 
एक लेखक उस किसान की उस क्रूरता में करुणा की तलाश करता है।
- एक ब्लॉग से 

Saturday, August 9, 2014

विकल्प (अपर्णा टैगोर)

मुहल्ले के अधिकांश लोग मध्यमवर्ग और निम्न मध्य वर्ग के थे. उन्हें देखने से ऐसा महसूस होता जैसे सब-के-सब अपनी-अपनी स्थितियों से खुश रहनेवाले जीव हैं.


आर्थिक मोर्चे पर उसकी विफलता ने गुच्छू को उससे दूर कर दिया है.

अपर्णा टैगोर की कहानी 'विकल्प' से (धर्मयुग, 22 दिसंबर 1985)

आर्थिक विफलता कितने ही संबंधों को लील लेती है, या संबंधों का आनंद उठाने से वंचित कर देती है.  

Friday, August 8, 2014

Parson’s Pleasure (Roald Dahl)

Read Roald Dahl's short story 'Parson’s Pleasure' in Hindi translation in an old issue of Sarvottam.

From an online review of the short story:
The other great thing about this story is how the main character, a fraud, explains to some ignorant people how frauds make fraudulent antiques while at the same time he's trying to defraud them. 

Wednesday, July 30, 2014

क्विजमास्टर (पंकज मित्र)

अब तो इस तरह की दुर्घटनाएं झेलनी ही पड़ेंगी। 
- पंकज मित्र की कहानी 'क्विजमास्टर' से (वागर्थ, जनवरी 2006)

किसी के एक निम्नतर सामाजिक स्तर पर चले जाने पर पेश आती अटपटी और अपमानजनक स्थितियाँ। 

कहानी चेतावनी देती है कि लोकप्रियता और प्रतिष्ठा देनेवाला काम जरुरी नहीं कि आर्थिक सुरक्षा और सम्पन्नता भी दे - इस मूलभूत अंतर को नज़रअंदाज़ करना आत्मघाती हो सकता है।

पंकज मित्र का लेखन काफी witty है।

Thursday, June 12, 2014

भूलना (चन्दन पाण्डेय)

परिन्दगी है कि नाकामयाब है

...जिंदगी अपनी कहानी कहने के लिए पात्रों को मजे ले-लेकर ही तो चुनती है।

(जिंदगी की क्रूरता की ओर इंगित करती टिप्पणी)

Thursday, June 5, 2014

सूखा तथा अन्य कहानियाँ (निर्मल वर्मा)

टर्मिनल

दूसरे दिन जब वे दोबारा मिलते तो कुछ ऐसा लगता जैसे आँधी-पानी के बाद कोई नया दिन निकला हो।

(एक प्रेमी-युगल की लड़ाई होने के अगले दिन के बारे में)

Tuesday, June 3, 2014

Historical Literary Works

Literary works based on historical events and characters:

  • The Glass Palace (novel by Amitav Ghosh)
  • वारेन हेस्टिंग्स का सांड (Hindi novella by Uday Prakash)
  • The Kite Runner (novel by Khaled Hosseini)


Sunday, May 25, 2014

The Glass Palace (Amitav Ghosh)


'But in time, Collector-sahib, everything changes. Nothing goes on for ever.' [page 107]



'He's in love with what he remembers. That isn't me.' [page 161]



'To live with a woman as an equal, in spirit and intellect: this seemed to me the most wonderful thing life could offer. To discover together the world of literature, art: what could be richer, more fulfilling?...' [page 172-3]



Dolly's departure had crated an unquietness in the house. He was sensitive to these things; they upset him. It wasn't easy to cope with change at his age. [page 175]



Nor did she want to write to Uma about this subject: it would be as though she were flaunting her domesticity in her friend's face; underscoring her childlessness. [page 190]



Uma gave her a wan smile. 'I met many men, Dolly. But... That's the thing about politics - once you get involved in it, it pushes everything else out of your life. [page 224]


Suddenly she understood why people arranged marriages for their children: it was a way of shaping the future to the past, of cementing one's ties to one's memories and to one's friends. Dinu and Alison - if only they were better suited to each other; how wonderful it might be, the bringing together of so many stories. [page 230]



This was the difference, he thought, between the other ranks and officers: common soldiers had no access to the instincts that made them act; no vocabulary with which to shape their self-awareness. They were destined, like Kishan Singh, to be strangers to themselves, to be directed always by others. [page 430]



It had been arranged that Uma would go with Dolly to the Khidderpore docks. Neither of them said much on the way; there was a finality about this departure that they could not bring themselves to acknowledge. [page 482]


Interesting read. I managed to read such a fat book (552 pages) after a long time. Amitav Ghosh is a highly rated author, so my expectations were also high. Clearly an enormous amount of research has gone into the book - to make the events, locales, customs and languages authentic. Reading this book makes you so well informed about the history of that period and region, and I loved it for this.

Yet I feel an author's "near-obsessive urge" to be true to history and culture is likely to make him/her a bit careless about the human terrain.


I think the book contains many unbelievable coincidences. The characters also sometimes seem unconvincing, saying things or doing things that one wouldn't expect them to say or do; for example, this statement of Dolly: 'He's in love with what he remembers. That isn't me', or Uma deciding to leave her husband after Dolly's departure.

The use of British-age formal, bureaucratic English in the novel is interesting.

By the way, imagine this story without the fictional characters of Dolly, Rajkumar, Uma and Arjun; just revolving around the king, the queen and the princesses. It will be so prosaic and bland. It's the fiction that makes history interesting in this case.


Comments from the Net: 

  • The Glass Palace considers the forces of war and governments and the role they play in shaping the fate of individuals. (From the Net)
  • And that takes me to one of The Glass Palace’s key flaws, there really aren’t many decent characters. Rajkumar, Uma and Arjun (who is faced with agonising issues of loyalty, as the Japanese advance and he has to face questions as to what and who he is fighting for) are the only interesting ones in the lot. Dolly is beautiful and wise, but not convincingly human... As in much science fiction, the characters are there primarily to allow the story to progress. They are a vehicle, not a destination.

    Worse yet is the tendency to cliché, all the men are brilliant, all the women beautiful (save Uma, who is brilliant), everyone is exceptional and special.
    There is a triteness to this, a simplicity of thought which is fair enough in an airport thriller but less appealing in a Booker nominated novelist... [RKP: I suspect this has to do with the author's Bengali DNA: I've found the Bengali community to be prone to taking a romantic view of life, and creating gods out of their cultural icons.]

    The Glass Palace is a broad novel, but not a deep one. The Glass Palace... is well researched, clearly something of a labour of love for Ghosh, but the history leaves too little room for the humanity. [From a blog]


Monday, May 19, 2014

फ्रिज में औरत (मुशर्रफ आलम जौकी)

बड़े काबिल बनते हैं। अरे हम जो अंग्रेजी बोल देंगे, ई का बोलेंगे।
- मुशर्रफ आलम जौकी की कहानी 'फ्रिज में औरत' से 

बिहारी लेखक द्वारा कहानी के बिहारी चरित्र के लिए बिहारी हिंदी का प्रयोग। 

Friday, May 16, 2014

काले साये (लवलीन)

दोनों चुप थे. लेकिन माहौल ध्वनित था. अतीत की गूँजों-अनुगूँजों की तरंगें दोनों के दिलो-दिमाग पर छायी हुई थी.

...वक्त की धूल में घटनाएँ धूसर हो गयी थीं.

- लवलीन की कहानी 'काले साये' से ('कथादेश', जनवरी 2006)

Thursday, May 15, 2014

गंदी (प्रियंवद)

कितने आत्मविश्वाश से हर साँस के साथ एक नया झूठ बोल सकती है. एक झूठ सालों तक बोल सकती है. मुझे तो लगता है, एक साथ, एक ही समय में कई लोगों से बोल सकती है. अभिनय तो जैसे उसने घुट्टी में पिया है. कब अभिनय कर रही है और कब जीवन जी रही है - कोई माई का लाल पकड़ नहीं सकता।

नीले रंग की शाल के ऊपर उसका अबोध, पवित्र, निश्छल चेहरा दिख रहा था. वह ऐसा ही करती थी. एक पल में कोई भी मायाजाल रच सकती थी...

धीरे-धीरे मुझे अब सब कुछ साफ दिख रहा था. मेरा उसका सम्बन्ध कभी कुछ था ही नहीं सिवाय इसके, कि वह मुझे दुत्कारती रहे, मेरा उपहास करती रहे. मेरी भावनाओं को उकसाकर खिलौने की तरह मुझसे खेलती रहे.

बल्कि मैं अच्छी तरह जानता था कि वह ऐसा कुछ अप्रत्याशित करती रहती है.

ठीक है... होंगी मेरे मनुष्य होने की अपनी कल्पनाएँ, अपनी परिभाषाएँ... होंगी सम्बन्धों के गहन प्रेम पर आस्था... पर क्या जरुरी है दुसरे सब भी वही मानें ? वैसा ही सोचें ? वैसा ही आचरण करें ? ... आखिर मेरा सच ही सबका सच क्यों हो ?

- प्रियंवद की कहानी 'गंदी' से ('कथादेश', दिसम्बर 2012)

कहानी में protagonist के अनिश्चित और बदलते हुए मनोभाव दिखाए गए हैं - जो natural है, realistic है.

Tuesday, May 13, 2014

बदलता काफिला

लगा, वह एक बड़े से काफिले के साथ था, जिसमेँ सारे जाने-पहचाने चेहरे कहीं गायब हो गए और अनजाने आकर मिल गए। जब वह चला था तो आगे बहुत से लोग थे जो देखते-ही-देखते खो गए और बहुत सारे अनजाने पीछे से आकर मिल गए। काफिला न तो लंबा हुआ न छोटा, बस वह खुद ही आगे बढ़ गया।

- मंजूर एहतेशाम की 'संपूर्ण कहानियां' की एक समीक्षा में उनकी एक कहानी से उद्धृत पंक्तियाँ    

Saturday, May 10, 2014

नैनसी का धूड़ा (स्वयं प्रकाश)

सूनी, काली, पानीदार, बड़ी-बड़ी आँखें टग-टग आसमान को ताक रही हैं। उनमें कोई ऊष्मा, कोई जीवन, कोई हरकत नहीं है। एक त्रासद याचना है सिर्फ। "मुगती दिराओ !" बस... बहुत हो चुका... अब मुक्ति दो।


यह अन्याय से उसका पहला परिचय था। और विवशता से भी।



भायं... भायं ! चौफेर सरणाट सुनसान ! हरियाली क कहीं छिटका तक नहीँ। …मिनख भूखे-तिरसे फिर रहे हैं…


चारूंमेर लोग बीमार पड़ रहे थे और मर रहे थे।


जमीन ऐसी थी कि दो बरसात ठीक टैम पर हो जातीं तो खूब सारा नाज हो जाता था जिसे वे बरस-दो बरस-तीन बरस तक भी कंजूसी के साथ बरतते रह सकते थे।


कौन बेचेगा इनके हाथों अपना लाड़-कोड़ से पाला जानवर !

- स्वयं प्रकाश की कहानी 'नैनसी का धूड़ा' से 

कहानी मार्मिक और भाषा प्रांजल है। राजस्थानी शब्दों का सुंदर समावेश है। 

Thursday, April 24, 2014

शालभंजिका (मनीषा कुलश्रेष्ठ)

मैं आज भी हैरान हूँ कि आख़िर हम दोनों शुरू कहाँ से हुए थे कि हमने रिश्ते की, दोस्ती की, स्मृतियों की इतनी लम्बी रेल बना ली, जो आधी रात को बिना सिग्नल मेरी नींद से धड़धड़ा कर गुज़रती है और मैं चौंक कर जाग उठती हूँ।

- मनीषा कुलश्रेष्ठ के लघु उपन्यास 'शालभंजिका' से (''नया ज्ञानोदय', फरवरी 2011)

Wednesday, April 16, 2014

नये मौसमों की धूप में (जया जादवानी)

तुम जब मेरी तरफ़ देखकर मुस्कराते और तुम्हारे नन्हें लाल होठों पर दूध की बूँदें चमकतीं, उस क्षण मैं इस समूची सृष्टि की कर्ज़दार हो उठती जिसकी किसी साजिश के परिणामस्वरूप तुम इस वक़्त मेरी गोद में हो।

…न जाने कितनी ख़्वाहिशें अपने कवच तोड़ फूट पड़ेंगी।

- जया जादवानी की कहानी 'नये मौसमों की धूप में' से ('नया ज्ञानोदय', फरवरी 2011) 

कहानी के कथ्य में कोई नयापन नहीं - एक माँ के अपने पुत्र पर ज़ीवन खपा देने के बाद अंततः अकेले रह जाने की देखी-जानी-पढ़ी हुई गाथा। पर कहानी का शिल्प असाधारण है। लेखिका के पास एक पैनी दृष्टि और प्रवाहपूर्ण भाषा है।

Tuesday, April 15, 2014

चार घंटे (कविता)

"कुछ भी हो मैडम ई बिहार है। ई पत्तरकारिता-फत्तरकारिता सब बाहर के लिए ठीक है, उधर है पूछ, ईहां त सब बराबर है।"

 - कविता की कहानी  'चार घंटे' से 

बिहारी भाषा की बानगी। 

Sunday, April 13, 2014

प्रतिशोध (पुन्नी सिंह)

'कभी-कभी ऐसा भी होता है सर, कि आदमी चाहते हुए भी किसी को सजा नहीं दे पाता या दिलवा पाता।'

- पुन्नी सिंह की कहानी 'प्रतिशोध' से ('कथाक्रम', अप्रैल-जून 2007)

एक अर्सा गुजर जाने पर आपके दिल में प्रतिशोध की आग भले ही वैसे ही धधकती रहे, बाकी सबकुछ बदल गया हो सकता है। हो सकता है आपका दोषी मर-खप गया हो, अपने जीवन की अंतिम घड़ियाँ गिन रहा हो, या फिर किसी और ही व्यक्ति में तब्दील हो गया हो। फिर किससे प्रतिशोध और कैसा प्रतिशोध? यही है इस कहानी का मर्म।

हाँ बॉलीवुड की बात जुदा है।

Saturday, April 12, 2014

द्रुत-विलम्बित (हृषिकेश सुलभ)

सेमल के पके फल-सी फटती हैं बीते हुए समय की गाँठें और बातें, घटनाएँ, आहत क्षण, ठिठकी हुई चाहतें - सब रुई लिपटे बीज की मानिन्द शुभा के इर्द-गिर्द उड़ने लगती हैं.

हृषिकेश सुलभ की कहानी 'द्रुत-विलम्बित' से ('कथादेश', जून 2012)

Tuesday, April 1, 2014

ख्वाबों की नींद उड़ा दी है

...बेचारे से कुछ ख्वाबों की नींद उड़ा दी है.
- गुलजार (फिल्म 'जीवा'' के एक गीत से)


Monday, March 31, 2014

गन्ध की रस्सी और यादों का कुआँ

फिर एक सन्न-सन्न करता सन्नाटा वहाँ फैल जाता था.


अपनेपन की गन्ध बिखेरता घर था.


वह गन्ध की रस्सी पकड़कर यादों के गहरे कुएँ में उतर गया था.


प्यार की बौछार...

- जीवन सिंह ठाकुर की कहानी 'वापसी' से ('कथादेश', जनवरी 2006)

विपन्नताओं की समृद्धियाँ...समृद्धियों की विपन्नताएँ

वहाँ विपन्नताओं की समृद्धियाँ हैं और यहाँ समृद्धियों की विपन्नताएँ.

- रश्मि कुमारी की कहानी 'अनावरण' से ('कथादेश', मई 2005)

Sunday, March 23, 2014

इलाहाबाद के पथ पर... (वन्दना राग)

उन शहर के लोगों से बात कर देखिए, जिनके शहरों में अभी तक मॉल (शॉपिंग सेंटर) नहीं आया है। कितना पिछड़ा हुआ महसूस करते हैं वे अपने आपको। ...वह एक महत्त्वपूर्ण बिम्ब है जो छोटे को बड़े शहर से अलग करता है।
- वन्दना राग (एक संस्मरण 'इलाहाबाद के पथ पर...' से , 'नया ज्ञानोदय', फरवरी 14)

संस्मरण की भाषा प्रांजल है ।

Monday, March 10, 2014

वक़्त के सितम कम हसीं नहीं

वक़्त ने किया, क्या हसीं सितम
तुम रहे न तुम, हम रहे न हम

तुम भी खो गए, हम भी खो गए
एक राह पर, चल के दो कदम
- कैफी आजमी ('कागज़ के फूल' फिल्म के गीत से)


एक बार वक़्त से, लम्हा गिरा कहीं
वहाँ दास्ताँ मिली, लम्हा कहीं नहीं
- गुलज़ार ('गोलमाल' फिल्म के गीत से)


नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा
मेरी आवाज ही पहचान है, गर याद रहे
वक़्त के सितम कम हसीं नहीं, आज हैं यहाँ कल कहीं नहीं
गुलज़ार ('किनारा' फिल्म के गीत से) 

दिवास्वप्न

तूने जो न कहा, मैं वह सुनता रहा
खामख्वाह बेवजह ख्वाब बुनता रहा

- एक नई फिल्म के गीत से
दिल की बात न पूछो, दिल तो आता रहेगा
दिल बहकाता रहा है, दिल बहकाता रहेगा
- गुलजार (फ़िल्म 'लिबास' के गीत से)

Sunday, March 2, 2014

अगस्त और अतीत (जयशंकर)

यह उन्नीस सौ  सत्तर के आसपास का दौर था. हम गेहूँ के लिए अमेरिका के भरोसे रहा करते थे. अच्छी घड़ियाँ स्मगलिंग से बाजार में आती थी. स्कूटर खरीदने के लिए और घर में टेलिफोन लगवाने के लिए नम्बर लगवाना पड़ता था. वह इस देश का कोई दूसरा ही वक्त रहा था.
- जयशंकर की कहानी 'अगस्त और अतीत' से ('कथादेश', जनवरी 2013)

आज का दौर भी क्या कुछ दशकों के बाद इसी तरह अजीब-सा, 'कोई दूसरा ही वक्त' लगेगा?

Thursday, February 27, 2014

एक बंगला सबसे न्यारा (जितेन ठाकुर)

उफ़! कितने वर्ष! कितने वर्ष एक... तिलिस्म में क़ैद रहा हूँ मैं.
- जितेन ठाकुर की कहानी 'एक बंगला सबसे न्यारा' से ('हंस', अक्टूबर 2001) 

एक मृग-मरीचिका के पीछे जिंदगी खरच देने के अहसास की पीड़ा. कई बार ऐसा भी होता है कि मृग-मरीचिका के मृग-मरीचिका होने के चिन्ह उस व्यक्ति को स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं, पर वह उन चिन्हों को नज़रअंदाज़ करने और मृग-मरीचिका के जादू में बने रहने का लोभ संवरण नहीं कर पाता. या उसे तल्ख़ सच्चाई से सामना कराने वाला कोई नहीं मिलता.

One-Way Street

दोनों रफ्ता-रफ्ता उस रास्ते पर चल रहे थे, जिसके मुसाफ़िर लौटकर कम ही आते हैं.
- एक संस्मरण से (ले. ज्ञान प्रकाश विवेक, 'पाखी', मई 2012)

There are a few one-way streets - alcoholism, drugs, crime etc.

Wednesday, February 26, 2014

पान से प्रतिष्ठा

पान प्रकृति है, परम्परा है, प्रेम है। अनेक के लिए पान प्रतिष्ठा है। दुकान पर जाने के बाद जिसका पान बिना ऑर्डर दिए बन जाए, उसका सिर चार मित्रों के बीच ऊँचा हो जाता है। किसी को भेजकर पान मंगाना हो तो 'कहना बल्लू भैया का पान बना दो' कहते हुए बल्लू भैया को जिस खुशी और गर्व का अहसास होता है उसके आगे...
- पान पर एक ललित निबंध से ('वागर्थ ', मार्च 2006)

Tuesday, February 25, 2014

दूसरी, तीसरी... सातवीं औरत का घर! (नीला प्रसाद)

"तुम अतीत से बने हो पर तुम अतीत नहीं हो. तुम वर्त्तमान हो तो वर्त्तमान में जीना, उसकी इज्जत करना सीखो."
- नीला प्रसाद की कहानी 'दूसरी, तीसरी... सातवीं औरत का घर!' से ('कथादेश', जनवरी 2006)

अतीतजीवी 

Monday, February 24, 2014

आश्रम (राबिन शॉ पुष्प)


"तुम सिगरेट नहीं पीते हो, इसीलिए मुझे अच्छे लगते हो," फिर वह तेजी से पलटकर चली गयी थी.

मेरे हाथ में रह गयी थी प्याली और न छूकर भी छूने जैसा एक अहसास. उस  दिन, जीवन में पहली बार मैंने अनुभव किया था कि शब्दों के द्वारा भी बहुत भीतर तक स्पर्श किया जा सकता है.

तभी वह आ जाती है. मैं जल्दी से सिगरेट नीचे गिराकर, जूते से मसलने लगता  हूँ. यह देखकर वह भीतर जाती है, लौटकर मेरे सामने ऐश-ट्रे रख देती है, "जब से वे गुजरे हैं, इसमें किसी ने राख नहीं झाड़ी. तुम इत्मीनान से पीओ."

वह सामने बैठ जाती है.

"तुम्हें बुरा नहीं लगेगा?"

"क्यों? मैं भी पीती रही हूँ."

एक झटका लगता है मुझे.

- राबिन शॉ पुष्प की कहानी  'आश्रम' से ('कथादेश', जनवरी 2006)  


अंदर तक सिहर उठा मैं. सहसा मुझे लगा, एक पल में वह कितनी अपरिचित हो उठी  है.
- उसी कहानी से


कभी कभी हमारा कोई अंतरंग अपनी एक बात से अचानक कितना अजनबी-सा लगने लगता है.

Friday, February 21, 2014

शॉर्ट फ़िल्म (प्रभात रंजन)

चिट्ठियों में हमने यह जान लिया था कि हम दोनों अलग-अलग दुनियाओं में रह रहे थे। जिन्हे एक करने की कोई सूरत नहीं बची थी। समय के साथ वह दूरी और बढ़ती जा रही थी। वह अमेरिका के बारे में, वहाँ कि यूनिवर्सिटी सिस्टम के बारे में लिखती थी। मुझे दिल्ली के बारे में लिखते हुए शर्म आती थी। मुझे ऐसा लगने लगता जैसे वह मुझे गाँव में छोड़कर शहर चली गई हो।
प्रभात रंजन की कहानी 'शॉर्ट फ़िल्म' से  (आउटलुक , जनवरी  2014

Tuesday, February 18, 2014

अन्वेषण (मधु कांकरिया)

सोच रहे हैं मैथ्यू. दृष्टि घूम जाती है पीछे की ओर. यादों के पक्षी उड़ रहे हैं, चारों ओर. कुछेक पकड़ में आते हैं कुछ हाथ आते-आते छूट जाते हैं.
- मधु कांकरिया की  कहानी  'अन्वेषण ' से 

अच्छी imagery है.


…कोई भी सत्य सार्वकालिक नहीं होता, जो कल मेरे लिए सत्य था, वह आज नहीं है.
- उसी कहानी से 

Saturday, January 25, 2014

Starting All Over Again

जीवन को नए सिरे से आरंभ करना सरल नहीं, खास तौर से तब, जब घाव गहरा हो और आसपास के वातावरण में मरहम न हो.
- आउटलुक पञिका में एक रिपोर्ट से